पिताजी
पिताजी
मजबूत है जब सूर्य से दूर बढ़ता जड़
खड़ा है तब विशाल बढ़ता सजीला धड़,
एक पूरी कायनात है खड़ी सजी सजी
हरियाली से भरी भरी
हसरतें बढ़ी चढ़ी
जड़ के संग क्षण क्षण सजग रहीं
शाखाएं रही दम दम तक जुड़ी
कर न सका कुछ बेदखल
लगकर जहान यह सकल
मजबूत घना तना बढ़ता चला
जड़ से पाकर यह आत्मबल,
कठोर ठोकर और चोट सहकर
जड़ ने सब सहजता से बुना था
और फिर हर कपोल हर कली
चढ़ चढ़ कर बढ़ते हर पत्ते ने
बढ़ने को अगम ऊँचाई तक
जड़ की फुसफुसाहट तक को सुना था,
इक दरख्त विशाल बड़ा बड़ा
है तनकर जमकर आज खड़ा
जड़ की बनी रही उस पर ऐसी दया
मनोरम रूप उसने वह है पाया
सैकड़ों हैं इत्मीनान से रचे बसे
फैली है जहाँ तक उसकी
रूमानियत भरी छाया,
मैं बस इक शाखा लाभार्थी
इस लोभ लाभ का ईश प्रार्थी
जड़ अपनी पकड़ यूँ कसे रहे
दरख्त सजीला सदैव सजा रहे।।