"अपनी खिचड़ी अलग पकाना"
"अपनी खिचड़ी अलग पकाना"
यहाँ बेमौसम बरसात है,
अपनी - अपनी ढपली,
अपना - अपना राग है,
मैं नहीं चाहता,
उनके सुर में सुर मिलाना,
मैं चाहता हूँ,
अपनी खिचड़ी अलग पकाना,
स्वार्थ हर जगह छाया हुआ,
इंसान मायाजाल में भरमाया हुआ,
मुझे किसी से न कोई आस है,
मेरे जीवन में अब भी प्यास है,
उस प्यास को बुझाने की चाह में,
चाहता हूँ,
अपनी खिचड़ी अलग पकाना,
जीवन - भर संघर्ष करता रहा,
फिर भी अभाव में जीता रहा,
घावों को मरहम - पट्टी ले सीता रहा,
उन घावों को भरने की चाह में,
चाहता हूँ,
अपनी खिचड़ी अलग पकाना,
ज़िन्दगी किस चिड़िया का नाम हैं,
यह समझ ही नहीं पाया कभी,
होंसला भी टूटा, मन घबराया कभी,
बिखरा - बिखर के संभला कभी,
उस संभलने की चाह में,
"शकुन" चाहता हूँ,
अपनी खिचड़ी अलग पकाना!