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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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कुछ ख्वाहिशें

कुछ ख्वाहिशें

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हमारी कुछ ख्वाहिशें सदा अधूरी ही रहती है

किनारे की दो लहरें सदा मजबूर ही रहती है

कितना ही प्रयास कर लो ज़माने में साखी,

कुत्ते लोगों की पूंछ तो सदा टेढ़ी ही रहती है


उनको दुनिया में समझाने का क्या फायदा,

जिनकी हृदय सतह सदा चिकनी ही रहती है

कुछ जगह तो सावन में भी सूखी ही रहती है

जिन लोगों की जमीन सदा बंजर ही रहती है


हमारी कुछ ख्वाहिशें सदा अधूरी ही रहती है

कुछ नामुरादों से उम्मीद अधूरी ही रहती है

पत्थर पर हम लोग चाहे फूल उगा सकते है,

कामचोरों की जिंदगी सोई हुई ही रहती है


हम चाहे यहां आसमां में छेद क्यों न कर दे,

आलसियों की जिंदगी लूटी हुई ही रहती है

हमारी कुछ ख्वाहिशें सदा अधूरी ही रहती है

रोशनी से भी कुछ जगह धुंधली ही रहती है


दुनिया में चाहे हर ख्वाहिश मेरी पूरी न हो,

पर दीये की ज्योति से सदा रोशनी ही रहती है

चाँदनी भले चाहे चाँद से कोसो दूर ही रहती है

मंजिल की याद, स्वप्नों को गहरी नींद देती है



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