Anu Mishra

Abstract

4.4  

Anu Mishra

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उम्मीद

उम्मीद

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चलते गए हम कदम दो कदम

बढ़ते गए हम कदम दो कदम

पाया थोड़ा मगर खोया बहुत

हंसे कम मगर रोए बहुत

फिर भी गम न था

खुद में हौसला कम न था

जो चाहा वो मिला नहीं

जो मिला उससे गिला नहीं

आशा की किरण बाकी थी

मैं हर सुबह ..

नई उम्मीद से जागी थी

न जाने क्यूँ ?


आज समय थम सा गया

ठण्डी बर्फ की तरह

जम सा गया।

बुझी सी अब उम्मीद है

बस थका हुआ सा जोश

आज ठहरे हुए लम्हे में

आया मुझे होश।

कहने को जो अपने थे

मोह जाल के सपने थे

परदेस का जब साया था

भाव अपनों का पाया था


कागज के टुकड़ों में 

ऊँची उड़ान थी

सबकी नजरों में

सम्मान की पहचान थी

खो गए कागज,

छुटा साया..

फिर धुँधली हो गई,

सम्मान की छाया।


न जाने क्यूँ ?आज मुझे,

होश है आया।

हाँ, याद हैं मुझे

उम्मीद की ज्योती जली थी

कंकड़ों से भरी एक

राह मिली थी।

मजबूरी का सागर बहा था,

उस दिन एक पत्थर पिघला था।

तकदीर भी उस दिन

क्या हँस रही थी।

मानो, बस यही कह रही थी।

राह मिली है तो, चल दे

अपनी पहचान को,

कुछ पल दे।


न जाने क्यूँ ? घबराईं मैं

सोच - सोच पछताई मैं।

सहसा कुछ याद आया

लगा कुछ खो कर पाया।

पाया अपनों का साथ था

अब सब कुछ खास था।


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