अपने आप को...
अपने आप को...
बहती नदी की सरसराहट में
खिलते फूलो की मुस्कुराहट में
पक्षियों की चहचहाहट में
सांसों की घबराहट में
ढूंढती हूं अपने आप को...
घूमती नजरों के बाणों से
लोगों की बढ़ती जुबानों से
मिलती सुनसान राहों से
अपनाती अनजान बांहों से
बचाती हूं अपने आप को...
अपनो की ही बंदिशों में
जकड़ी रहती हूँ
क्यूँ अपनो की ही आंखों में
खटकती रहती हूं
पूछती हूं अपने आप से...
क्यूँ तन्हाई में जी कर
तन्हाई में मर जाना
अकेले ही धड़कती धड़कनों को
मन में छुपाए रखना
करने देती हूँ अपने आप को...
हर दर्द को सहते रहना
आँसू को बहते देना
राहत के एहसास को भूल
क्यूँ पीड़ा को सहते रहना
बतलाती हूँ अपने आप को...
उठती हवस की रात में
कर्कश स्वरों के राग में
उठती निगाहों की ताक में
बंदिशों की इस आग में
जलने देती हूँ अपने आप को...
जुबान को खामोश रखना
क्यूँ मुंह से कुछ न कहना
पल-पल इक अजीब सी
घुटन को सहते रहना
समझाती हूँ अपने आप को...
आखिर क्यूँ ....?
ये सब होता है
और मैं सब देखने
देती हूँ अपने आप को....
