रावण
रावण
रावण अब वृद्ध हो चला है,
अपने बड़े से महल के,
एक सुसज्जित कमरे में,
निहायत अकेला----अशक्त---
अशक्तता ही अक्सर, सही सोच दे जाती है,
अतीत की कई परछाइयां,
आईनों के मानिंद, सामने आती है,
अक्सर ही उसकी आँखों के कोरों से,
बह जाते हैं, चंद आंसू----
पोंछने का प्रयास भी नहीं करता,
ग्लानि के हैं---बह जाएंगे---
सीने का कुछ भार ही हल्का कर जाएंगे
उसकी तीसरी पीढ़ी का शासन है,
आराम है, पर---
मन करवटें बदलता रहता है।
कहाँ है वो, रनिवास----
और सैकड़ों रानियां---
जिन्हें उसके दम्भ ने जुटाया था,
भोग-लिप्सा के आगे कभी,
दिमाग सोच न पाया था,
अधिकांश काल-कवलित हो चुकी हैं।
और मंदोदरी??
मन होता है, पूछूँ उसका हाल,
पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा,
संभावित उत्तर ही शर्मिंदा कर जा रहा--
वैदेही?? विभीषण???
किस बात का दशानन जब
दस मस्तिष्क की शक्ति रख,
सदुपयोग न कर पाया,
दिल-दिमाग, अंग प्रत्यंग में,
उग चुके हैं, आईने ही आईने
जो अट्टहास कर रहे हैं, उसके कृत्यों पर,
और 'नर्तन' उसकी हालत पर
घबरा कर अब वो अक्सर ही,
कानों पर हाथ रखता है।
पर उन उपहासों को कौन कम कर सकता है,
घबड़ा कर रावण ने, खुद ही,
अपनी सजा कर दी है, निर्धारित,
अगले जन्म में एक नए नाम,
के साथ जन्म पायेगा,
और भीष्म प्रतिज्ञा करने वाले,
भीष्म सा ही खुद को पायेगा।