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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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दुःखी तन

दुःखी तन

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जब हमारा ये तन दुःखी होता है

तब हमारा हरकर्म धूमिल होता है

सामने हमारे 56 भोग क्यों न हो?

खाने का बिल्कुल मन न होता है

तन स्वस्थ तो आदमी रहता मस्त है

बीमार तन स्वर्ग को भी छोड़ देता है

जब हमारा ये तन दुःखी होता है

तब हमारा हरकर्म धूमिल होता है!


जिनके तन में कोई भी रोग होता है

फिर वो न जागता है,न ही सोता है

उनकी आंखों में हरपल नीर होता है

जिनका शरीर जब भी रोगी होता है

इसलिये कहता साखी,बात सांची

तन की सदा ही अच्छी रखो पाती

जिनकी स्वस्थ रहती तन की माटी

उसे ही रात को अच्छी नींद आती

जब हमारा ये तन दुःखी होता है

तब हमारा हरकर्म धूमिल होता है!


वो शख्स सबसे बड़ा गरीब होता है

जिनका तन के साथ मन दुःखी होता है

पैसे के ढेर की जो बताते है,ख्याति

उनके मन में कभी खुशियां न आती

स्वस्थ तन से ही तकदीर बन जाती

निरोगी काया श्रम से ही बन पाती

जिनका जग में शरीर स्वस्थ होता है

वो अपनी दुनिया का राजा होता है

बाकी पैसा होकर भी दुःखी होता है

जिनके जिस्म में कोई रोग होता है!


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