कोई : अपना सा
कोई : अपना सा
आज दिल में फिर इक कसक सी उठी
फिर एक बार तन्हाई ने तन्हाई से पूछा
तुझे तो बड़ा गुमान था खुद पर
हर बार तूने मुझे दुत्कार दिया
ये कह कर -
मुझे तेरी ज़रूरत नही ऐ तन्हाई
मेरे पास तो मेरा अपना सा है कोई ..!
आज ज़रा ग़ौर किया तो दिल ने दिमाग़ से पूछा
वो अपना सा ..! क़ौन है तेरा ?
क्या ! वो वही हमराह है तेरा
जिसने कमजोर पलों में
भी तुझे तेरी कमियाँ गिनायीं, पल- पल
तेरी नासमझी - नादानी का अहसास कराया ..
या वो जिसने चुपके से आकर तेरा हाथ कसकर थामा
बिना समझाये
दुनिया की परवाह किए
यूँ गले से लगाया
जैसे उसके लिए तू कोई पराया नही
उसका ही हमशया है .!
अब तूँ ही बता मेरा मौला ..
की दिल के अपनापन को महसूस करूँ
या दिमाग़ की सुनूँ
वो क़ौन मेरा
अपना सा .?
ये क्या अब ये किसकी आवाज़ है
इतने में अंतर्द्वंद से जूझते अंतरमन से हौले से कहा
ए मेरे दोस्त मैं कोई और नही,
तेरा ही अक्स हूँ
जब भी हो तनहा तू
कर मुझसे जी भर क़े बातें
मैं ही तो हूँ
तेरा अपना सा .!