"पाखंड"
"पाखंड"
चाहे गंगा तट पर खड़े हो, या हो मंदिर के द्वारे पर l
पाखंड की जड़े है इतनी गहरी, हर चौखट हर गलियारे में ll
आकर बैठे कुर्सी पर नेता, या फिर गलियों के चौराहों पर l
पाखंड तुम्हें पैर पसारे, हर लिबास पहने मिल जाएगा, हर छोटे बड़े इंसानों के चेहरों पर ll
पाखंड का चोला ऐसा है पहन के जो भी निकले, हमारे आस पास के द्वारों पर l
रंग चढ़ा दे पल में ऐसा हम पर, कि देर नहीं करते हैं फिर वो बुद्धि हमारी हरने पर ll
शहरी, ग्रामीण या फिर हो पढ़ा लिखा वर्ग आ ही जाता, हर कोई उनकी चुगल भरी बातों पर l
कोई लूटता धर्म के, तो कोई राजनीति और कर्म कांड के नाम पर ll
अंधविश्वास और पाखंड, एक ही पहलू के दो सिक्के मालूम होते है पर l
ये कहना झूठ ना होगा, आकर अंधविश्वास में हम, पाखंड को बढ़ावा दे बैठते जीवन अपने पर ll
लोग बड़ी ही होशियारी से, मूर्ख बना कर, अपना उल्लू सीधा कर सफलता प्राप्त कर लेते हैं पर l
कहानी ऐसी गढ़ते वो, कि हम फंदे में फंस ही जाते हैं हर मौके के आने पर ll
कहीं ना कहीं ये समाज हमारा, पाखंड के इर्द गिर्द घूमता रहता है पर l
कोशिश सब बेकार हैं जाती, हम सब उस चक्रव्यूह के दल दल में धसते जाते हैं पर ll
