नन्ही सी कली
नन्ही सी कली
प्यारी सी कली पे मंडराते भँवरे,
परवाह किये बिना पँखुड़ियाँ कतरते,
नन्ही सी कली को आहत करते,
बिना सोचे समझे चाहत थोपते।
हर भँवरे का दिल एक कली पे आए,
कली भी आखिर कैंसे ही मुस्कुराए,
किस किस से दूर जाए या पास आए,
ज़िन्दगी यों ही जिए या कि मर जाए।
अपनी ख़्वाहिशों को जीते जी मारते,
हर पल दुखों का पहाड़ ही झेलते,
खुशी के इक इक पल को तरसते,
कभी ज़िन्दगी तो कभी मौत ही जीते।
कब तक सफ़र ये यों ही कटेगा,
कब तक दिन रात यों ही चलेगा,
कब तक हर पल खामोशी में बीतेगा,
कब तक दिल में यों शोर रहेगा।
कब तक ज़िन्दगियाँ मरती रहेंगी,
कब तक ख़्वाहिशें खामोश रहेंगी,
कब तक मुस्कुराहटें उदास होती रहेंगी,
कभी तो ज़िन्दगी ज़िन्दगी की तरह जियेगी।
कब तक जिस्म का कारोबार चलेगा,
कब तक चाहतों का नाम बदनाम रहेगा,
कब तक उसके जन्म को कोसा जायेगा,
कब तक उसका पैदा होना गलत होगा।
क्या प्यारी सी कली को जीते जी मारना ठीक है ?
या नन्ही सी जान को कहीं छोड़ आना ठीक है ?
पूरी ज़िन्दगी को क्या यों नर्क बनाना ठीक है ?
या फिर ज़िन्दगी का सामान्य ही बनाना ठीक है ?