बीमारी
बीमारी
वह समय था जब सबके पास रोजगार था।
लोहार का बेटा लोहार और कुम्हार का बेटा कुम्हार था।
दुकानदार का बेटा दुकानदार और किसान का बेटा किसान था।
यदि कोई पढ़ना चाहे तो उसके लिए पूरा आकाश था।
सिर्फ वही पढ़ने जाते थे जिन्हें पढ़ने से प्यार था।
गुरुजनों का सत्कार था। उन्हें भी पैसों से ज्यादा पढ़ने वाले बच्चों से प्यार था।
फिर वक्त ने करवट बदली और पढ़े लिखे बढ़ने लगे।
माता-पिता भी उनको अब अनपढ़ से लगने लगे।
माता पिता के खानदानी कामों की उनकी नजर में कोई अहमियत ना थी।
पढ़े लिखे वह ग्रेजुएट तो जरूर थे लेकिन उनके पास कोई नौकरी ना थी।
आज भी कोसते हैं वह, सरकार को, समाज को और अपने परिवार को।
नौकरी मिलती नहीं, पुश्तैनी काम वो करते नहीं।
जुलाहे वह बनेंगे नहीं, हाथ का काम कुछ करेंगे नहीं।
घर घर बेचने के लिए सेल्समैन बनेगे नहीं।
कोई नया काम शुरू करेंगे नहीं। अपनी बेकरी में भी काम करेंगे नहीं, जूते वह सिलेंगे नहीं।
अपने मन में ही सोच लिया है यह काम छोटा है और यह बड़ा।
सिर्फ अफसर बनने के लिए उन्होंने है पड़ा।
आपका क्या ख्याल है क्या वास्तव में ही बेरोजगारी है
या लोगों में कोई काम ना करने की बढ़ रही बीमारी है।