नल चरित्र
नल चरित्र
जय शिव शंकर भव भय हारी ,
कर त्रिशूल नंदी की सवारी ।
संकट नाशक मंगलकारी ,
दुष्ट विनाशक प्रभु कामारी ।
सुर मुनि पालक जय त्रिपुरारी,
जटाजूट बिच गंगा धारी ।
पियो गरल हिय सुरहित धारी ,
मैं अनाथ प्रभु शरण तुम्हारी ।
भक्ति भाव से रीझि पुरारी ,
करहु दया सब दोष बिसारी ।
वेद नें तुम्हरी स्तुति सारी ,
पुरवहु मन कामना हमारी ।
मै अति दीन मलीन , न विस्तृत ज्ञान हमारा ।
वर्णन नल का चरित , करूं हर करो सहारा ।।
परम रम्य नैषध एक देशा , जहां राज नल नाम नरेशा ।
धर्म कर्म मख जोग प्रवीना, विप्र देव गुरु पद लयलीना ।
पालहि प्रजा सकल निज ऐसे,धेनु वत्स निज पालहि जैसे।
नहि काहू भय दुख अरु दाहू , प्रजा मध्य आनन्द उछाहू ।
एक दिन भूप गये सर पाहीं,लखि तह हंस मनहि हरषाहीं ।
कौतुक हंस गह्यो नृप जाई,हंस रूदन करि के अस कहई।
तजहु मोहि तुम हे भूपाला,हम बिनु नारि जननि को पाला।
तजहु मोहि जो तुम नरनाहू , हम तुम्हार करवाय विवाहू ।
भीम भूप विदर्भ महं रहई , दमयन्ती तिन कन्या अहई ।
तासु दीन विधि सुन्दरताई ,शील कर्म गुण अति अधिकाई।
मुख शशि बदन मलय गिरि चन्दन, अधर गुलाब इव खञ्जन ।
केश नागिनी के सम सोहे , देखि रूप सुर नर मुनि मोहे ।
यहि प्रकार भूपाल से , कहीं हंस सब बात ।
गयो हंस गृह आपने , नृपवर हर्षित गात ।।
गवने राउ तुरत निज धामा , गयउ हंस दमयन्ती ग्रामा ।
उतरो जाइ सरोवर पासा,खिले जलज अलि करहिं विलासा।
परम रम्य सरवर तेहि देखा ,भन उपजा अति हर्ष विशेषा।
कछुक काल तट पर रहि जाऊं,ताहि भूप कर चरित सुनाऊं ।
यहि प्रकार मन करत विचारा , परी श्रवण नूपुर झंकारा ।
दमयन्ती तव सखियन संगा , करन आइ सरवर मन चंगा ।
देखि रूप सो हंस विमोहा,कवन भांति कर मन वश ओहा।
तब सो बहुविधि कला दिखाई,दमयन्ती से कह अस जाई।
दमयन्ती तव रूप अनूपा,मिलै तुमहि पति निज अनुरूपा।
तब ही रूप सफल जग होई ,जब तुम्हार नल सो पति होई।
नैषध के है भूप नल , शोभा गुण की खान ।
भर्ता तव अनुकूल मोहि , वो ही पडते जान ।।
हंस बचन सुनि मन रति बाढी,भयी प्रीति भूपति प्रति गाढी।
नल बिनु और चित्त नहि आनौ,निज पति रूप ताहि को जानौ।
अस मन सोचि हंस से कहई,कर सो काज राउ पति बनई।
कहेउ हंस सोइ करब उपाऊ,जेहि बिधि बनय तोर पति राऊ ।
जाइ हंस नरपति सन भाषा , दमयन्ती उर भा तव बासा ।
तजो विदर्भ हंस ने जब से , रह उदास दमयन्ती तब से ।
मातु देखि निज सुता उदासा,गई तुरत निज पति के पासा।
कह सुनु प्राणनाथ मम बानी,निज कन्या अब भयी सयानी।
व्याह हेतु आयोजन करहू , एहि मा कन्त देर जनि करहू ।
उचित कहा तुम समय बिचारी,करहुं स्वयंवर बिधि अनुसारी।
सेवक अरु आमात्य सब , बुलवाये महाराज ।
कहा तुम्हें जो सौंपता , पूर्ण करो वह काज ।।
भूपति चहुदिशि दूत पठाए , दे पाती सब देशन आए ।
नारद भ्रमत विदर्भहि आएव , स्वयंवर समाचार तिन पाए।
आए सो विदर्भ पति भवना , द्वारपाल से बोले बचना ।
सेवक तुम भूपति पहि जाई , मम आगमन जनावहु जाई।
सेवक जाई नृपति शिर नाए , कह नारद ऋषि द्वारे आए ।
सुनतहि वचन महीपति धाए, आइ मुनीष चरण शिर नाए।
सादर मुनिहि भवन लै आए , यथा उचित आसन बैठाए ।
दमयन्ती को भूप बुलाबा , आइ मुनीश्वर को शिर नावा ।
अति आदर विदर्भ पति कीन्हा,पद पखारी पादोदक
लीन्हा।
भूप बिबिध बिधि कर सत्कारा,प्रमुदित नारद भयउ अपारा।
प्रेम सहित नृप ने किया , नारद का सम्मान ।
दे आशिष तव मुनि , चले स्वर्ग करत हरि गान ।
नारद मन महं करत विचारा , सुरन हेतु यहि भा अवतारा ।
अस जिय धरि सुरपति पहि गयऊ,सब वृतांत सुनावत भयऊ ।
नारद बचन सुनेउ जब काना , तबहि इन्द्र तेहि पावै ठाना ।
पावक वरुण और यम संगा , चले सकल सजि के निज अंगा ।
देश- देश के चले भूप वर,चढि चढि निज विमान के ऊपर ।
चले नलहु विवाह के काजा , आए सकल विदर्भहि राजा ।
बिबिध देश के भूपति आए , सब जनवासे गये ठहराए ।
तेहि समीप अति सुन्दर बागा,अति सुरम्य तेहि मध्य तडागा।
नव किसलय फल फूल सुहाए , सकल भूप लखि बहु हरषाए ।
तेहि निशि को सब शयन करि , प्रात उठे हरषाय।
दमयन्ती की लालसा , सबके उर उमङाय ।।
दमयन्ती को जननि बुलावा , गिरिजा पूजन हेतु पठावा ।
चतुर सखी कछु संग सहाई,चली साजि सब काम लजाई।
दमयन्ती जब मंदिर आई , इन्द्र दूत निज दियो पठाई ।
रूप मनोहर साज बनाई , मिलो दूत सखियन बिच जाई ।
दूत न काहू सखि पहिचाना , तेहि कर काहू के संग जाना ।
आई सब गिरिजा के भवना , दमयन्ती तहं कीन्ह अर्चना ।
जय हो शंकर प्राण पियारी , गणपति कार्तिकेय महतारी ।
रिद्धि सिद्धि सुख सम्पत्ति दाता, आदि शक्ति जगदम्बा माता।
दुःख और भव भय की नाशिनि, माता पूर्ण मनोरथ कारिणि।
करहु मनोरथ पूरण माता , जानहु तुम सब हिय की बाता ।
पूजन करि हिमसुता का , सखिन सहित सुकुमारि ।
सखी बने तेहि दूत तब , कह अस गिरा उचारि ।।
देव दनुज किन्नर गंधर्वा , सखि आए तव स्वयंवर सर्वा ।
सब के है मन तोर निवासा, तब हिय है को करहु प्रकाशा ।
आयो हंस विदर्भ है जबसे,भयो बास हिय नल को तबसे ।
तेहि क्षण ते सोई पति माना, और कोउ नहि मन अनुमाना।
नल की मूरति ह्रदय बसाई ,पूजि उमा निज भवनहि आई ।
आइ दूत कह सुरपति पासा , भयी भेग प्रभु तोरी आशा ।
नल प्रति देखेउ प्रेम अपारा , भयउ मनोरथ चाहति क्षारा ।
भये इन्द्र तब अन्तर्ध्याना , राज सभा नृप करहि पयाना ।
चारिउ सुर नल रूप बनाई , भूपन बिच मिलि बैठे आई ।
दमयन्ती ले कर वरमाला,सखिन सहित आई तेहि काला ।
प्रोहित सबके नाम गिनाए,नल समीप तब सब चलि आए।
नल समान लखि पांच नृप , प्रोहित अति घबराय ।
विस्मय से कम्पित बदन , कछू कहो नहि जाय ।।
देखि पांच नल सभा कुमारी , कह प्रभु सुमिरि नयन भरि वारी।
तुम प्रभु कैसी लेत परीक्षा , मोहि ठगावन की का इच्छा ।
विनती करहुं रूप निज आवौ , मोर मृत्यु नहि अपयश पाबहु ।
नल बिनु और वरण नहि करहूं , राखहुं तन नहि जलि के मरहूं।
सुनि दमयन्ती बचन कठोरा ,आइ रूप निज कीन्ह निहोरा।
जबहि प्रकट सुर कर निज देही, भयो वरण नल को क्षण तेही।
करि जयकार सुमन बरसाई , चारिउ देवन कहा लजाई ।
अतुलित प्रेम न नल से चीन्हा, तेहि कारन तुम को दुख दीन्हा।
देखि आप की प्रीति अपारा , कछुक देन चाहौं उपहारा ।
कह नल जो देवहु करतारा , सोइ हरषि करिहौं स्वीकारा ।
इन्द्र वज्र पावक अग्नि , वरुण दीन जलदान ।
अन्त धर्म रति यम दई , गये सकल तजि मान ।।
नल यश वरणत बिबिध प्रकारा , गये भूप निज निज आगारा ।
ग्रह तिथि नख वरु जोग विचारी , कीन्ह स्वयंवर बिधि अनुसारी।
भीम भूप बहु दायज दीन्हा , कन्या भेटि रुदन बहु कीन्हा ।
हा ! दुहिता हा प्राण पियारी , कहि तङपै जस झस बिनु वारी ।
बहु बिधि निज कन्यहि समुझावा,नारि धरम कुल रीति बताबा।
पुरजन परिजन सहित समाजा ,पुर बाहर तक आए राजा ।
बार - बार नैषध पति कहई ,भीम प्रेम वश फिरन न चहही ।
तव रथ उतरि भये नल ठाढे,नृप प्रवोधि तिन दुख से काढे ।
बंदि चरण निज सुता जमाता,गृह गये भीम शिथिल सब गाता।
एहि बिधि नल आए रजधानी , नल राजा दमयन्ती रानी ।
राजा रानी प्रेम से , जीवन करें व्यतीत ।
कैसे कब बीता समय , नहि कछु हुआ प्रतीत।।
बहु बिधि नल कर भोग विलासा, भा दमयन्ती गर्भ प्रकाशा।
नवें मास तेहि सुत एक जायो , राजभवन में हर्ष समायो ।
सकल मगन गृह मंगल छाए , द्वौ दम्पति बहु दान लुटाए ।
प्रोहित नामकरण जब कीन्हा,इन्द्रसेन नामहि धरि दीन्हा।
एक कन्या पुनि रानी जाई ,प्रेम मगन सुख वरणि न जाई।
नल के राज सुखी सब पुरजन, ईर्ष्या द्वेष न कपट काहू मन।
संयुत सकल प्रजा जन रहई , इन्द्र सरिस उपमा नृप पाई ।
देव सभा में करत विचारा , इन्द्र बचन अस गिरा उचारा ।
सकल देव कै करि अपमाना,नल को तेहि निजपति अनुमाना।
सभा मध्य तहं कलियुग रहई, इन्द्र बचन सुनि सो अस कहई।
राज हीन पल में करहुं , नल समीप हम जाइ ।
देव अवज्ञा कर फल , लखहु सबहि हरषाइ ।।
तब कलयुग नर रूप बनाई , पुष्कर के गृह पहुंचो जाई ।
बहुविधि पुष्कर को समुझावा, अक्ष खेल हित तेहि उकसावा ।
कह कलयुग तुम खेलहु जाई ,राज कोश सब देहूं जिताई ।
यहि बिधि पुष्कर को समुझाई , नल शरीर खुद प्रविष्यो आई ।
कलयुग पुष्कर गृह तज जबसे,पुष्कर भयो मगन है तबसे।
निश्चित विजय जान जो कोई,निशि दिन चैन न ताको होई।
नल समीप पुष्कर नें जाई , द्यूत क्रिया की बात चलाई ।
कह नल पुष्कर खेलहु आई , निज निज भाग्य लेहु अजमाई ।
तेहि अवसर दमयन्ती आई ,सुनि तिन बचन महादुख पाई।
दमयन्ती कह भूपवर , अक्ष क्रिया केहि काज ।
वैभव सकल नशाइ के आयेगी नहि लाज ।।
वेद पुरातन ऋषि जन कहई, ज्वारी मनुज न कछु सुख लहई ।
ता कर कुटुम्ब सदा दुख पावै, दुख प्रतिकार न वह करि पाबै ।
रानी बहु प्रकार समुझावा , भावी वस नृप मन नहि भावा ।
ताहि समय पुष्कर तहं आवा,अक्ष क्रिया प्रारम्भ कराबा ।
कनक सकल नृप प्रथमहि हारा,गज हय राज कीन्ह पुनिक्षारा।
जब नल सकल पदारथ हारे ,तब पुष्कर अस बचन उचारे।
दमयन्ती को भूप लगाई , अन्तिम दांव लेहु अजमाई ।
मन्त्रिन तब नल को समुझाई , द्यूत क्रिया है बन्द कराई ।
दुहिता पुत्र सारथी संगा , भेजि विदर्भ भयो नृप भंगा ।
सारथि गयो विदर्भ का , कही भीम से बात ।
राज पाट हारे सकल , भूपति तव जामात् ।।
सुनतहि सकल वृतांत कराला , दुखी भये विदर्भ भूपाला ।
सर्वस हारि इहां नरनाहा , वन गवने गहि रानी बांहा ।
नृप वन गवन शोक अति भारी,दुखी भये सब पुर नर नारी।
करि नृप नैषध चले अनाथा , प्रेम विवश जन लागे साधा ।
करहि विचार सकल मन माहीं, सुख त्रैलोक्य भूप बिनु नाहीं ।
भूपति प्रजा प्रेम वश जानी, उर अति भयउ दुःख अरु ग्लानी।
बहुविधि धीरज प्रजा बंधाई , गवने नृप नैषध शिरु नाई ।
नल दमयन्ती सोहै कैसे , मनहु जीव संग माया जैसे ।
जल अरु अन्न बिना अकुलाए, लखि जल सरवर तट पर आए।
अधोवस्त्र निज तन से उतारी , मीन प्रयास एक हैश मारी ।
भूजि ताहि जब जेवन आए, मीन गयी सर अति अकुलाए।
जल पी तहं तिन रैन गवाई , चले प्रात सो ठाव बिहाई ।
मग दुरूह भीषण विपिन , चले जात नृपराय ।
मन सुमिरत प्रभु कीजिए ,मेरी कछुक सहाय ।।
चले जात वन मन दुख भारी, हृदय ग्लानि सुमिरत हितकारी ।
मैं कुपंथ चलि सर्वस हारा ,वन वन फिरहुं विपति के मारा।
अन्न बारि बिनु चलो न जाई ,बिपति भयंकर आन बुलाई ।
दमयन्ती कर कहा न माना, निज हित को हम अनहित जाना।
बहुविधि पावौ कष्ट पुरारी , दूरि करहु प्रभु बिपति हमारी ।
यहि बिधि करत ईश कर ध्याना ,चले जात मग नाहि ठिकाना।
वन ते निकरि ठांव एक पाई , दो मारग जहं पड़े दिखाई ।
मारग एक विदर्भहि जाई , रानी से तव नल अस कहई ।
पायहु तुम मम संग दुख भारी, पितु के गृह अब रहउ सुखारी।
तन मन धन तुम नाथ हमारे, तुम बिन सुख नहि मोहि पियारे।
नारि सुखी निज पुरुष संग , राजा हो या दीन ।
तुमको तजि जाऊँ नहीं , मै तुम्हरे आधीन ।।
यहि प्रकार नल धीर बंधावति, मानहु क्रिया धर्म संग आवति ।
कछुक दूरि चलि दिवस सिराना, दोऊ शयन करन तब ठाना ।
लेटे भूमि करन दोउ शयना, नींद न आव राउ केश नयना ।
नल मन में तब कीन्ह बिचारा,मम संग यह दुख लहेउ अपारा।
इहां जो रानी छोडौ भाई ,निज पितु गृह सुख पावहि जाई।
नैषध पति के मन अस आई , तजि रानी सो जगह बिहाई ।
जदपि नारि तजि नल दुख पावा,रानी सुख हित दुःख भुलावा।
इहां प्रात उठि भीम कुमारी, नल बिनु भयी दुखित अति भारी।
विरह बावली तब अस भई , सब दिशि नल को खोजत फिरई।
हा नैषध पति मोर सहाई , केहि अपराध मोहिं बिसराई ।
राज गयो दुख ना भयो , पति परमेश्वर संग ।
तुम बिन हम ऐसी भयी , प्राण तजे ज्यो अंग ।।
अवगुण नाथ कवन हम कीन्हा,जो मो कहुँ कानन तजि दीन्हा।
करत विलाप जात मग माहीं,अहि नें डस्यो रानि पग माहीं।
करि चीत्कार गिरी सो धरणी ,पीड़ा तासु जाइ नहि वरणी।
सुनि पुकार एक व्याथ सिधावा , दमयन्ती समीप जब आवा ।
व्याध आइ पन्नग को मारा , तेहि कर भय अरु शोक निवारा ।
लखि रानी के रूप शिकारी , काम विवश गइ मति तेहि मारी ।
धरि धीरज रानी से बोला , तुमहि देखि मेरो मन डोला ।
कह नहि रमणी अधिक सतावौ, लज्जा तजि पहलू में आवौ।
तुम एकाकी हमहु अकेला ,नहि बिसराव सुरति की बेला।
पावौ कष्ट नारि अलवेली ,वन वन तुम जो फिरडू अकेली ।
रानी बोली बन्द कर , मुख पापी बाचाल ।
नही मेरी क्रोधाग्नि ही , होगी तेरा काल ।।
आचल गहने को जभी , दुष्ट बढाया हस्त ।
रानी ने दे श्राप तब , किया उसे भस्मान्त् ।।
वन वन फिर ग्राम पुर रानी, नहि पायउ नल चित्त गलानी ।
पहुंची नगर बाहुबल केरे , पुर बहि बालक मिले घनेरे ।
बालक तेहि उन्मादी जाना, तेहि को दुख दीन्हे तिन नाना ।
नृप की मातु खडी थी अटारी, लखि दमयन्ती भयी दुखारी।
दासी भेजि तुरत बुलवावा , भोजन दै बस्त्रन पहिरावा ।
कहा राजमाता दमयन्ती , रहहु विसारी मोर गृह विपती ।
कन्या हमरी आहि सुनन्दा , तेहि के संग रहि करहु अनन्दा।
उहां देव ऋषि काटो नागा , कष्ट पाइ तिन तजो विरागा ।
क्रोधित हुइ तेहि दीन्हेउ श्रापा,स्थिर होहु कीन्ह जो पापा।
नाग भयो गति हीनहि जबही , करि विलाप नारद से कहही।
नाथ मोहि तुम दीन्हेउ श्रापा, कहहु कवन बिधि मिटे सन्तापा।
कहा देव ऋषि सुनहु वन , लगे आग विकराल ।
तव नृप नल के हाथ से, मिटहि श्राप सुनु व्याल।।
नहि जमात दुहिता सुधि पाई, शोक विकल तन गयो सुखाई।
उठे भीम मन भाव घनेरे , कहां गये नृप नैषध केरे ।
निज मन्त्रिन तब भीम बुलाई, नल दमयन्ती खोज कराई।
भ्रमत बाहुबल पुर जब आए, लखि दमयन्ती मन हरषाए ।
आइ दूत तब भूप जनावा , दमयन्त कर विपति सुनावा ।
तव गृह जो दासी बनि रहई , भीम भूप सोइ तनया अहई ।
भीम सुता जब राजा जाना, भयी ग्लानि अति हृदय दुखाना।
दमयन्ती को तुरत बुलावा , उचित बसन भूषन पहिरावा ।
सकल राजकुल कह कर जोरी, क्षमहु कीन्ह जो मै मति भोरी।
दमयन्ती तिन आशिष दीन्हा, शोक पयोधि पार सब कीन्हा ।
सारथि हांक लगाइ पुनि , करि रथ पर असवार ।
भीम सुता गृह भेजि निज , कीन्हेउ लघु हिय भार ।।
भीम सुता आई पितु पासा,परम दुखित नहि जीवन आशा।
नृप तेहि के मन धीर बंधावा, मिलिहै नल तेहि को समुझावा।
सकल गुप्तचर दिए पठाई , चहुं दिशि नल की खोज कराई
नल को काहू खोज न पावा,तव मन्त्रिन नृप को समुझावा ।
फिरत दुखित भूपति वन माहीं ,कृष तन तिन ते चलो न जाही।
तबहि तहां लागीव दावानल , लागे जरै विटप पशु खग कुल ।
नारद श्रापित अहि तहं रहई,देखि अगिनि रोदन बहु करई।
सुनि के रुदन भूप तहं आवा , कर ते बिषधर आइ उठावा।
भूप एक पग जबहि बढावा,श्राप हीन अहि बचन सुनावा।
बिपति नशावन हारे भाई , धन्यवाद मम जीवन दाई ।
श्राप निवारक मृत्यु हर , मनुज रूप हे देव ।
प्रत्युपकार करहुं का , तात तुमहि कहि देव ।।
भाई विपति नशावन हारे , केहि कारन तुम वनहि सिधारे ।
पावौ दुख तुम बहु वन माहीं , राजयोग तव लक्षण अहही।
कह नल मै नैषध कर राजा, कर्म विवश हम कीन्ह अकाजा ।
वैभव सकल अक्ष हम हारा, वन वन फिरऊं विपति कै मारा ।
कह अहि सुनहु बात नरनाहू ,मन्त्र देन दुइ तुम को चहहूं।
एक मन्त्र निज रूप छिपावहु , दूजे गयो राज पुनि पाबहु ।
अस कहि नाग मन्त्र तेहि दयऊ,परम प्रफुल्लित भूपति भयऊ।
कह अहि तुम अब अवधहि जाऊ , है ऋतुपर्ण तहां कर राऊ ।
बाहुक नाम तहां तुम रहहू , नृप रथ के शारथि बनि जाहू ।
तहंही रहत काल सो आवै,जब तव नाथ मिलन होइ जावै।
दमयन्ती निज नाथ बिनु , पितु गृह रहे उदास ।
उपरोहित नामपर्ण को , बुलवाया कर आश ।।
नामपर्ण तुम पुरवहु आशा ,नैषध पति मिलिहहि विश्वासा।
गांव - गांव प्रति देशहि जाई , आबहु स्वयंवर बात चलाई ।
जो यह समाचार सुनि काना , होइ दुखित नैषध पति जाना।
भ्रमत पुरोहित अवधहि आयो, जहां राज ऋतुपर्ण सुहायो।
त्रिविध वसन्त सुगंध समीरा , वह मृदुल सरितन के नीरा ।
राज सभा ऋतुपर्ण की आई, स्वयंवर की सब बात बताई ।
बाहुक रूप तहां नल ठाढा, सुनि के श्रवण हृदय दुख बाढा।
अन्तरद्वन्द कहो नहि जाई , झर - झर नैनन नीर बहाई ।
निज उद्देश्य सफल जब जाना, नामपर्ण कीन्हेउ प्रस्थाना ।
दमयन्ती को आई बताबा , विरह पयोधि नाव तिन पावा ।
कह दमयन्ती मातु से , अस घोषणा कराव ।
आवे जो स्वयंवर प्रथम , सो दमयन्ती पाव ।।
स्वयंवर समाचार सुनि पाए , देश - देश के भूपति आए ।
ऋतुपर्णहु स्वयंवर में आए , वाहुक सारथि संग सुहाए ।
नामपर्ण दमयन्ती बुलाई , राशन लै बाहुक ढिग जाई ।
सकल बस्तु तिन को दे आवहु, अग्नि नीर तहं नहि पहुचावौ।
जो वह होई नैषध भूपा , इन बिनु रचइ रसोई अनूपा ।
बाहुक ढिग सब वस्तु रखाई , कछुक काल खुद देखन आई।
अग्नि नीर विनु पकी रसोई , बाहुक रूप भूप नल होई ।
तब दमयन्ती तहंबा आई , बाहुक को जहं शयन कराई ।
आइ कहा तव द्वौ कर जोरी , पुरवहु नाथ आस अब मोरी ।
कह दमयन्ती प्राणप्रिय , प्रियतम प्राणाधार ।
निराधार बहु रहि चुकी , दो मुझको आधार ।।
नाथ रूप निज मोहि दिखावौ, पायो अति दुख अब न सताबौ।
नाग मन्त्र नल को जो दीन्हा, तेहि को नल प्रयोग अब कीन्हा ।
जबहि मन्त्र उच्चारण कीन्हा,नल आपन रूपहि लै लीन्हा।
राजभवन द्वौ दम्पति आए , भीम भूप अति आनन्द पाए।
बाहुक रूप अवध फिरि आए , अक्ष सुविद्या खेल दिखाए।
तेहि बल पुष्कर सम्मुख आई,कहा द्यूत फिरि खेलहु भाई ।
भयो द्यूत तेहि दिवस कराला, नल जीतेउ बहु कोश विशाला।
राज तुरत गज रथ सब हारा ,पुष्कर को नल आन पछारा।
दया कीन तेहि एक पुर दीन्हा , नैषध पति नैषध पुनि लीन्हा ।
सकल प्रजा अति भयी सुखारी , पायहु मनहु रंक निधि भारी।
अस सम्पत्ति विपत्ति जस, उदय अस्त शशि भानु ।
धीरज धर्म जो ना तजै , विजय ताहि की जानु ।।