निकाह का मेहर
निकाह का मेहर
निकाह नहीं कुबूल किया था उसने
क्योंकि पढ़ा ही नहीं गया जो उसके कान सुन पाते,
मगर अम्मी के बोलते ही जोर-जोर से गूँजती
कुबूल है, कुबूल है, की आवाजें उसने सुन ली थीं।
बाहर अब्बू भी किसी के गले लगकर
भर्राई आवाज से इतना ही बोल पाए,
आज से हम खालाजात भाई नहीं समधी हो गए।
सभी खुश थे उसके और अब्बू के अलावा...
अम्मी तो बेहद,
उनके मुताबिक मेहर की तय रकम जो थी।
बड़ी बहन के मेहर के बचे हुए पैसे
आज उसकी दावत पर खर्चे थे,
और जूठन की तरह वो बहन पड़ी थी
घर के एक कोने में।
माँ मरते वक्त नसीब की पोटली
साथ ले गई थी शायद,
दूसरी अम्मी ने अब्बू को दूर कर दिया
बंद सींखचों में घुट रही सांसों की,
निकाह के नाम पर आज़ादी थी,
और मेहर के नाम पर एक और क़ैद।
