बालकनी और छज्जे वाला प्यार
बालकनी और छज्जे वाला प्यार


बरसों से खाली पड़ी मेरी बालकनी
अपने खालीपन को भरने के लिए
बतियाती रहती हैं अक्सर।
सामने वाले छज्जे से
उसमें भी तो नहीं उगते हैं
शमी के फूल
उसमें भी तो नहीं होती है।
कोई चहल-पहल,
वो भी तो पार्क में छितरे
नीम की छांव में अकेला है।
दिन भर दोनों सूरज की छाया को
आधा-आधा पहर सम्हालते हैं
और जब शाम होते ही
जल उठती हैं बत्तियां
तो लगता है जैसे,
जमीन पर उतर कर
आलिंगन कर रहे हों आपस में
इस तरह से दोनों तरफ की रोशनी
मिला देती है उनकी छाया एक दूसरे में।
भले ही बात नहीं कर सकतीं
बालकनी आपस में
मगर बांट ही लेती हैं
दुख एक-दूसरे का।
अच्छा है जो बालकनी
इंसान नहीं है
अच्छा है जो इनके
हाथों में मोबाइल नहीं है।
अच्छा है जो विज्ञान इन्हें
कमरों में बंद नहीं कर सका
तभी तो आज भी
बालकनी जी लेती है।
एक पूरा घर,
जितनी बाहर उतनी भीतर
कभी कभी चाय की
चुस्कियां लेते हम
पहुंच ही जाते हैं
बालकनी के उस हिस्से में,
जो हमसे बांट लेता है
प्रेम का विरह
और हमें दिखा
देता है वो चांद
जो किसी और को भी
दिख रहा होगा
अपनी बालकनी से,
उस रोज़ से ये
बालकनी अधूरी है
जिस दिन सामने छज्जे पर
गाए जा रहे थे मंगलगीत।
और बालकनी ढो रही थी
दो कप के गोल निशान
प्रमाण देते हुए
कि कोई न आया
भटक कर इधर।
तबसे हर सुबह होती है
शाम में ढल जाने को
और बालकनी लिखती रहती है
एकाकी प्रेम की वेदना,
छज्जे के साथ।