नई पड़ोसन
नई पड़ोसन
देख कर नई पड़ोसन को, दिल मेरा ललचाए
अब तो उसके दर्शन के बिन, दिल मेरा न रह पाए
शक्कर जैसे बोली उसकी. शहद की जैसी बातें
उसकी जूड़े की खुशबू से, महके दिन और रातें
आँखें उसकी हिरनी जैसी, पंखुड़ियों से होंठ
जुल्फें नागिन सी लहराए, उसपर घूँघट की ओट
सुराही जैसी गर्दन को, जब मेरी ओर घुमाए
देख कर उसके अधरों का तिल, दिल घायल हो जाए
कमर पतली ऐसी जैसे, खेतों की पगडंडी
पाने की चाहत में भरता है, मन आहें ठंडी-ठंडी
चांदी जैसा बदन चमकता, उसपर सुनहरे बाल
बिन पिये चढ़ जाए नशा, टेढ़ी हो जाए चाल
निर्मल काया कोमल छाया, बड़ी तेज़ है उसकी माया
जिसने भी देखा है उसको, उसके जाल से बच नहीं पाया
जबसे हमने देखा उसको, उसके साथी से जलते हैं
बात कोई ना जान सका ये, हम भी उस पर मारता हैं
पर वो तो है चीज़ पराई, अपनी भी है एक लुगाई
लेकिन उसमें वो बात नहीं, इसने जो है प्यास जगाई
अब तो हम भौंरे जैसे, उसको घेरे रहते है
काम-धाम सब छोड़ छाड़ कर, बस पहरेदारी करते है
बस उसको ही तकने के खातिर, खिड़की नई बनवाई है
पीछे से भी ताड़ सके हम, तभी एक ऐनक भी लगाई है
मेरे उसके आँगन के बीच, अब कोई दीवार नहीं
आशिक कोई भी बन सकता है, पर मुझ जैसा पहरेदार नहीं
अब तो मेरा जगना सोना, उसकी याद में होता है
मैं भले हूँ तन में अपने, मन, उसके साथ ही होता है
मगर कभी जो बीवी मेरी, मन को मेरे भाँप गयी
और मेरे ख्यालों को वो, मन ही मन में जान गई
दिन वही बस अंतिम होगा, फिर ना दिल ये धड़केगा
टूटेगा ये रोज़ मगर पर, फिर कभी ना तड़पेगा
फिर तो हम भी धोबी के कुत्ते बनकर रह जायेंगे
पत्नी ना घर में आने देगी, ना बाहर के हो पायेंगे।