नेह का मेघ
नेह का मेघ
साँकल खटखटाई है.......
इक बार फ़िर से सावन ने।
मेघ भी फ़िर से कुछ,
भरे भरे से नज़र आते हैं।
पर......
मुझे इनसे क्या,
मैंने तो सहेज के रखा है अब तक,
वो सीला सा टुकड़ा
उस मेघ का अपनी पोटली में,
जिसके तले हमनें,
अपने प्यार की जड़े सींचीं थीं
और.....
हरियाया था पौधा हमारे प्यार का।
कहा था मैंने.......
रुक जाओ,
अपने प्यार की पहली बौर तो देख जाओ,
पर तुम न रुके.....
सावन के वो भीगे से लम्हें
और.....
भादों की यादों को अपनी
पगड़ी के नीचे छुपा
तुम चल दिये।
ये कहके के
मेघ बचा के रखना
और.....
आँगन का एक कोना सूखा रखना।
साथ साथ भीगेंगे
फिर से इसी मेघ तले,
तो आओ न....
के अभी भी कुछ बूंदें बाकी हैं
इस नेह के मेघ में।
मुझे क्या करना,
इन भरे हुए मेघों का।
के.....मेरे लिए तो,
काफ़ी हैं इसकी चार बूँदें ही।
एक बूँद से तुम्हारे चरण मैं पखारूँगी,
दूजी को आँखों के कटोरों में उतारूँगी
तीजी में भीग हम तृप्त हो जाएंगे
और चौथी....न न...
उसे तो मैं रखूँगी गंगाजली में,
सूखने न दूँगी उसको कभी।
हर रोज़ अपनी आँखों का,
शर्बत मिलाऊँगी।
के.....सावन में अगले
उसे फिर से निकालूँगी।
क्या पता तुम्हारा,
तुम आओ न आओ
के....सावन की तीज में
मेंहदी में मिला के,
नाम तुम्हारा ही
अपने हाँथों पे रचाऊँगी।

