नदी एक जननी
नदी एक जननी
बसतें है कुछ गाँव शहर मेरे किनारें
सींचती हूँ खेतों को देती सबको सहारे
बढ़ती जाती हूँ एक छोर से दूसरी छोर
लेती कई मोड़,उत्तर से दक्षिण की ओर
पूजी जाती हूँ सदियों से इस भारत देश में
कभी गंगा,कभी जमुना कभी और किसी भेष में
किया मैंने सतयुग से कलयुग तक का सफ़र
कई बदलाव देखें और पायें इस दौरान मगर
मैं निर्मल कभी आकाश सी हुआ करती थी
पावन,पवित्र और दर्पण सी आभा हुआ करती थी
पर बदलते समय ने हाल मेरा क्या कर डाला है
सोने सी चमकती थी जो उसे कोयला कर डाला है
स्वार्थ भरी इस संसार मैं अपनी निर्मलता खोती रही
जरूरतें पूरी की इंसानों ने अपनी और मैं रोती रही
मानते हो मुझे माँ तो मेरा भी सम्मान करो
मुझपे थोड़ी दया करो न मेरा अपमान करो
वरना एक दिन ये "जननी" इतनी दूषित हो जाएगी
अस्तित्व खो देगी अपना और मृत पड़ जाएगी।
