नारी त्रासदी
नारी त्रासदी
अपने वैवाहिक जीवन में
किसी को मत आने दो,
जहॉं बीच में कोई पड़ा
वहीं वैवाहिक सुख ख़त्म हुआ।
आप सोचते हैं कि कोई सहारा दे देगा
पर कोई सहारा नहीं देता,
सबकी अपनी अपनी दृष्टि
सबके अपने अपने स्वार्थ हैं।
जो अनजान पुरुष विवाह करके लाता है
वह मित्रता करने की कोशिश नहीं करता ,
आपस में समझने की कोशिश नहीं करता
बस संबंध बनाने की जल्दी करता है।
कन्या को मॉं- बाप समझाकर भेजते हैं
अब वही तुम्हारा घर है वहीं रहना है,
बिन बुलाये नहीं आना है
पति के साथ उसकी सहमति से आना है।
कन्या की न शिक्षा पूरी होती है
न आर्थिक स्वावलंबन हो पाता है,
परजीवी होकर ससुराल में जाती है
जहॉं एक नई दुनिया होती है।
वह संभल भी नहीं पाती और
अनजाने में ही मॉं बन जाती है,
प्रसव पीड़ा से गुजरती है
और तब समझ में आता है शादी क्या है।
स्त्री के लिये पराधीनता का जीवन
पुरुष के लिये दैहिक सुख प्राप्ति का साधन,
स्त्री की कोई स्वतंत्र इच्छा कोई सहमति नहीं
वह हर हाल में पति पर निर्भर।
न उसका अपना कोई घर
न उसके हाथ में कोई नौकरी,
न उसको कहीं आने- जाने की स्वतंत्रता
न किसी से दोस्ती करने की स्वतंत्रता।
वह लाचार होती चहारदीवारी की बन्दिनी
जैसा मिला वैसा जीवन गुज़ारती,
उसकी अपनी कोई आवाज़ नहीं
उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं।
जमाना बदल गया इक्कीसवीं सदी आ गई
पर स्त्री की नियति अभी भी वही है,
कुछ एक साहसी महिलाओं को छोड़
साधारण जन जीवन वैसा ही चला आ रहा।
साहसी महिलायें तो हर युग में हुईं
पर जनसाधारण चक्की में ही पिस रहा,
स्त्री की अपनी कोई आवाज़ नहीं
आवाज़ होती भी है तो दबा दी जाती है।
अब नए युग में भी यह लाचारी क्यों
शिक्षा पाकर भी यह मजबूरी क्यों,
क्यों नहीं साहस जगा पाती नारी
सदियों की प्रताड़ना से मुक्त हो पाती नारी।
