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Rajkumar Jain rajan

Classics

5.0  

Rajkumar Jain rajan

Classics

न जाने कहाँ

न जाने कहाँ

1 min
398


बहुत दिनों बाद आज

मेरी जिजीविषा ने

मेरे उगते हुए सपनों के

अहसास को छुआ


मन के समंदर में 

आशाओं की पतवार थामे

रिश्तों की पोटली

न जाने हम कहाँ छोड़ आये


अरसा बित गया

सम्वेदनाएँ चुप हो गई

अभिव्यक्ति भी मौन हो बिखर गई

रिश्तों का सब अपनापन


साइबर दुनिया में

कहीं खो गया

रिश्तें भी मुखोटों की

आड़ में छुप गए


भावनाओ में बुना एक दर्द

जो सालता है मुझे

रिश्तों को फलते-फूलते

देखने के भ्रम में


और आत्मीय बनने के संकल्पों

को यों म्लान देख

मन कुलांचे मारता रहा

मृग- मरीचिका-सा


रिश्ते नहीं जैसे हो कोई

रिश्तों की पोटली

जिसमे-

माँ-बाप, भाई, बहन,

चाचा ,चाची, भुआ, मौसी,

नाना, नानी आदि रिश्तों को


बांधना मुश्किल हो गया है

रिश्तों की इस फ़टी पोटली में

कोशिश है मेरी

विश्वास बाँहें फैलाकर


स्वागत करे

फिर से नए उत्कर्ष के लिए !


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