न जाने कहाँ
न जाने कहाँ
बहुत दिनों बाद आज
मेरी जिजीविषा ने
मेरे उगते हुए सपनों के
अहसास को छुआ
मन के समंदर में
आशाओं की पतवार थामे
रिश्तों की पोटली
न जाने हम कहाँ छोड़ आये
अरसा बित गया
सम्वेदनाएँ चुप हो गई
अभिव्यक्ति भी मौन हो बिखर गई
रिश्तों का सब अपनापन
साइबर दुनिया में
कहीं खो गया
रिश्तें भी मुखोटों की
आड़ में छुप गए
भावनाओ में बुना एक दर्द
जो सालता है मुझे
रिश्तों को फलते-फूलते
देखने के भ्रम में
और आत्मीय बनने के संकल्पों
को यों म्लान देख
मन कुलांचे मारता रहा
मृग- मरीचिका-सा
रिश्ते नहीं जैसे हो कोई
रिश्तों की पोटली
जिसमे-
माँ-बाप, भाई, बहन,
चाचा ,चाची, भुआ, मौसी,
नाना, नानी आदि रिश्तों को
बांधना मुश्किल हो गया है
रिश्तों की इस फ़टी पोटली में
कोशिश है मेरी
विश्वास बाँहें फैलाकर
स्वागत करे
फिर से नए उत्कर्ष के लिए !