तुझसे ही तो है जिंदगी मेरी
तुझसे ही तो है जिंदगी मेरी
तुझसे ही तो है जिंदगी मेरी,
तु ही तो है बंदगी मेरी।
तुम्हारी उम्मीद पे ही तो टिका हूँ मैं,
वरना वजूद ही क्या थी इस जहां में जीने की मेरी ?
जानती हो आसमां,
मैं अपनी कविता में रोज तेरी एक नई कहानी बुनता हूँ,
जो यादें तुने मेरे ज़ेहन में जमा कर गई हैं,
उन्हीं यादों से रोज कुछ नया चुनता हूँ।
जो कुछ सुकून के पल बिताये हमने साथ,
उन्हीं पलों में खुद को फिर से खोकर,
जी लेता हूँ एकाकी में भी उन्हें।
शब्दों में पिरोकर उन पलों को तेरी रूप सजाता हूँ।
तेरी मुस्कराती हुई चेहरों को याद कर
मैं रोते हुए कितना सुकून पाता हूँ।
सचमुच कितने यादगार लमहें थे वो मेरी जिंदगी के !
क्या उन हसीन पलों को हकीक़त में तेरे साथ जिंदगी भर जी पाऊँगा ?
क्या मैं आसमां की बाहों में आशियां बसा पाऊँगा ?
अब तो तेरे ही दिल में अपना घर कर लिया मैंने,
भटकते- भटकते ही सही लेकिन
एक दिन अपनी मंज़िल जरूर पा जाऊँगा।

