मैं कृष्ण बोल रहा हूँ
मैं कृष्ण बोल रहा हूँ
आकांक्षाओं की कीलों से
मेरे सपनों को
ठोंक दिया गया।
बेरहमी से
कई प्रश्न
धूमिल अंगारों से
बहती आंधियों से।
नित उठते
आंखों के सम्मुख
मेरे अबोध मन में
उगे गुलमोहर
केवल समय की
अंगुलियों में।
लटकते हुए
भविष्य के
वैभव ही तो थे।
कुछ शब्द
मेरे जो अनकहे
इच्छाओं की भीड़ में
खोते रहे, रोते रहे
समय दौड़ता रहा
मेरे मन की निश्चल नदी
बहती रही।
जन्मदाता की लालसा
और अर्थ की मृगतृष्णा में
और मेरा अस्तित्व
मेरे लिए ही संकट बन गया।
मेरे सपनों पर जड़ी हुई कीलें
अब भी जिजीविषा को
जंग लगा रही है
और मेरे नियंता
क्यों नहीं समझ पा रहे हैं
कि मेरे सपने
अनगिनत प्रश्नचिन्ह बनकर
दरकने लगे हैं।
मेरा धैर्य संभावनाओं के
समुद्र में डूबने को आतुर है
फिर भी तुम मौन हो
तुम्हे प्रतीक्षा है
क्या किसी भगीरथ की ?
अवतरित करे जो
वह संवेदनाएं जो
तुम्हारी जड़ता पिघलाकर
कर सके जो मुक्त मुझे
तुम्हारी आकांक्षाओं से
यही समय का सच है।
मुझे उन्मुक्त उड़ने दो
मेरे भीतर एक अनुभूति
जन्म ले रही है
अपने को अपने में ही
झांकने की
वह अनुभूति
जो मुक्ति का क्षण है।
नव सृजन का सम्बल है
तुम्हारी मरुस्थली
आकांक्षाओं का
लहलहाता समुद्र है
निहत्था समर्पण है
जो अक्षय वट वृक्ष बन
देगा सबको छाया।
