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Devendra Singh

Abstract Tragedy Others

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Devendra Singh

Abstract Tragedy Others

मज़दूर

मज़दूर

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रोटियों की फ़िक्र में दिन-रात मैं चलता रहा

हड्डियों  को तोड़  डाला भूख से जलता रहा


आशियाना बन न पाया  फाइलें  चलती रहीं

पेड़ की छाया तले ही अब तलक पलता रहा


सैकड़ों  राजा-वज़ीरों  के  हुजूम  आते  रहे

हर  कोई बातों के लच्छों से हमें छलता रहा


कम्बलों की खेप आके बाबुओं में  बंट  गयी

कंपकंपाती  ठंड में  यूं  ही  पड़ा  गलता रहा


बिन सिफारिश के हकीमों ने न देखी नब्ज तक

मर  गए परिवार  वाले  हाथ  मैं  मलता  रहा


भोर  में उम्मीद का सूरज  निकलता रोज था

शाम तक  थक हार के बेफ़ायदा  ढलता रहा


आस की डोरी  न छोड़ी  सियासत के द्वार से

सियासत की  बेरुख़ी का गम सदा खलता रहा


सब हुआ इस देश में मेरी खुशहाली के सिवा

रोटियां  पाने का मेरा काम  ही  टलता  रहा।।


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