मज़दूर नहीं इंसान हैं
मज़दूर नहीं इंसान हैं
न कोई साधन है ना हीं संसाधन है
पाँव में चप्पल नहीं खाने को रोटी नहीं
फिर भी कोसों दूर से देश को गठरी में बाँध
अपने माथे पे रख चले आ रहें हैं लोग
हज़ारों किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय कर जा रहें हैं लोग
सरकारें कह रहीं हैं की अपने-अपने घर जा रहें हैं लोग
लोगों को रास्तों की गहराई का कोई अंदाजा नहीं है
सभी के पांवों में दरार आ चुके हैं जैसे खेतों में आ जाते हैं
पानी की कमी से मौसम की बेरुखी से कोई भूख से तड़प कर मर रहा है
कोई पानी की कमी से मर रहा है किसी को रास्ते निगल जा रहे हैं
किसी को रेल कुचल जा रहें हैं यह भयावह दृश्य है रो रहा मनुष्य है
भगवान ! हैं तो कहाँ हैं ?सरकार है तो क्यूँ है ?
जो मर रहें वो मज़दूर नहीं वो इंसान है,वो इंसान हैं।