मूर्ति नहीं मैं हूं इन्सान
मूर्ति नहीं मैं हूं इन्सान
मूर्ति नहीं मैं हूं इन्सान
क्यों रहा नहीं ये तुमको भान
बिल्कुल तुम्हारी तरह ,सोचने
समझने की शक्ति रखती हूँ
बस कान ही नहीं दिये ईश्वर ने
तुम्हारी तरह जुबान भी रखती हूँ
महसूस मुझे भी होता है
हां मेरा दिल भी रोता है
जब नहीं समझते मेरा मन
मैं क्या पहनूं, कहां जाऊं
ये अधिकार सिर्फ मेरे हैं
भ्रमित होकर तुमने सोचा
जैसे अधिकर ये तेरे हैं
चुन सकती हूं क्या चाहिए
बेइज्जत होना मंजूर नहीं
कह सकती हूं जो कहना है
मन क्यों मारूं, मैं क्यों हारूं
क्यों चाहते हो उतना ही करूं
तुमसे हरपल मैं क्यों डरूं
तुम तो मेरे साथी हो
है जीवनभर का साथ
जब मैं तुमको समझती हूं
जीवन कुर्बान करती हूँ
फिर कैसा है ये चिल्लाना
बिन बात में झुंझलाना
तुम मेरे भाव समझ लो
मैं समझूं तुम्हारी हर बात
तुम मेरा साथ दो
मैं दूं तुम्हारा हरदम साथ
कितना सुन्दर सबकुछ होगा
जीवन होगा आसान
कब समझोगे तुम
है मेरा भी आत्समम्मान
मूर्ति नहीं मैं हूं इन्सान!