मुखौटे ,, प्रॉम्प्ट २३
मुखौटे ,, प्रॉम्प्ट २३
अक्सर रामलीला में
बच्चे, बड़े मुखौटे लगाया करते
बंदर, भालू, बन
मंच पर झूमते, उछलते,
राक्षस का चेहरा ओढ़े
हुड़दंग मचाते,
रावण गरजता दस सिरों वाले मुखौटे के पीछे से;
मुखौटे आदमी की नहीं
पात्र की पहचान हुआ करते थे।
आदमियों के चेहरों पर
सजते - सजते ऊब चुके मुखौटे
अब
उतर आए हैं भीड़ में,
अपनी पहचान ढूंढते घूम रहे हैं
गलियों, बाज़ारों में;
अचंभित हैं
आदमी के अनेकानेक चेहरों से
चेहरों पर झलकते
सुख के, दुख के
हंसने, रोने के
आशा, निराशा के
हार के, जीत के
जीने की जद्दोजहद और
मरने के डर के
पल - पल बदलते भावों से।
हम सक्षम हैं
तुम्हारे चेहरों को
छुपाने में,
तुम्हारे आंसुओं को
छलकने से पहले सुखाने में,
तुम्हारे टूटते, बिखरते अस्तित्व का
कवच बनने मे,
हमें पहनो, मुखौटों ने कहा
किंतु
उनके सपाट, बदरंग चेहरे
खिंचे - खिंचे होंठ
और आंखों के डरावने कोटर
अनदेखा कर
आदमी अपनी राह चलते रहे।
मुखौटे भला क्यों हार मानते !
फ़िर फ़िर चढ़ना, फ़िर फ़िर उतरना
बरसों का अभ्यास रहा;
उतर चले
चेहरों के पीछे छिपे मन के अंधेरों में;
डाह के, द्वेष के
छल - कपट के
धन, वैभव, सत्ता की लालच के
गहरे रंगों में
उलझते, डूबते, उतराते
अपने आप को संवारते, निखारते रहे
मुखौटे -
नई पहचान बनाते रहे।
गहरे, चटक रंगों
और विचित्र हाव भावों से सजे
मुखौटे
अब बाज़ार पर छा गए हैं;
आख़िर
आदमी को रिझाने में कामयाब हो गए हैं ।
बोलती, नाचती
या गुस्से से तरेरती आंखें,
फूले या पिचके हुए गाल
या गालों में पड़ते ख़ूबसूरत गड्ढे,
हल्की मुस्कान हो या छलकती हंसी,
साधु का चेहरा
या शैतान का भयानक अट्टहास;
मुखौटे -
आदमी के मन के रंगों में रंग गए हैं
आदमी का मन हो गए हैं
धड़ल्ले से बिक रहे हैं मुखौटे
आदमी
अपना मन पहचानने लगा है,
चेहरे पर
एक साथ कई - कई मुखौटे लगाने का
आदी हो गया है,
अब मुखौटे आदमी की पहचान हो गए हैं
पात्र जंगल में खो गए हैं।
