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Yogesh Kanava

Abstract Romance Classics

4.5  

Yogesh Kanava

Abstract Romance Classics

मत्स्यगंधा 2

मत्स्यगंधा 2

28 mins
311


प्रसन्न अति निशाथ राज आज।

घर आई एक सुकन्या आज।।

दिनों को जाते कब देर लगती है।

आद्रिका पुत्री अब यौवन सखि है।।


किन्तु कितनी विकल अपने आपमे।

कैसा जीवन दिया किस अभिशाप मे।।

यौवन भरपूर किन्तु गंध विचित्र आती।

सोच निशाथ कन्या की आँखे भर आती।।


मत्स्यगंध लिए वो मत्स्यगंधा अंगी।

उद्वेलित मन न बन पाया कोई संगी।।

कौन ले जाएगा मुझको घर अपने।

इस मत्स्यगंधा के कैसे पूरे हों सपने।।


मन ही मन कितनी हो गई थी वो निराश।

बैठी कालिंदी तट लिए नाव, न कोई पास।।

भवें कमान,तीक्ष्ण कटि,मृग सदृश्य कुलांच।

पिघले सीसा भी, ऐसी यौवन तपन आँच।।


सुडोल मांसल देह और बाँहें मेरी तप्त।

फिर भी जीवन मेरा कैसा अभिशप्त।।

क्या हो पाउँगी मुक्त, मैं इस अभिशाप से।

पूछती हर बार यही प्रश्न वो अपने आप से।।


क्या जीवन मेरा यूँ ही रहेगा अतृप्त।

कैसे होंगी अभिलाषाएँ मेरी संतृप्त।।

नयन अश्रुधार मन व्याकुल अधीर।

बैठी थी वो बस ऐसे ही यमुना तीर।।


नीरव जल बह रहा था,और था खग-वृंदगान।

कौन आया निकट उसके,नही उसको भान।।

देख सम्मुख वो देवपुरुष अपने।

भूल नैया लगी वो उसको तकने।।


बोली सेवा आर्य मैं क्या करूँ।

बैठो नाव मे नदि मैं पार करूँ।।

चमक रहा था तेज से उसका भाल।

सोचा दुर्गंध से क्या नहीं है बुरा हाल।।


सहज भाव से बोला वो ऋषि।

मैं द्वैपायन पुत्र पाराशर ऋषि।।

ले अपनी नाव, कर ऋषि सवार।

चल पड़ी वो लिए हाथ पतवार।।


तनिक दूर चलते ही बोले उससे ऋषिवर।

क्यों है भरे यौवन मे भी तेरे मुख पर पतझर।।

हाँ ऋषिवर है सच, यौवन मेरा तप्त।

किन्तु फिर भी, है कितना अभिशप्त।।


क्या चाहती हो मुक्ति इस दुर्गंध से ?

महक उठे तेरा तन दिव्य सुगंध से।।

मैने तो अब त्रासद जीवन है भोगा।

संभव यह किन्तु ऋषिवर कैसे होगा।।


क्या है कोई जतन,क्या है वो युक्ति।

कैसे मिलेगी मुझे इससे अब मुक्ति।।

मैं मुक्ति मार्ग प्रशस्त कर दूँ तो।

तेरे तन को सुगंधियों से भर दूँ तो।। 


फिर देर न करो ऋषिवर युक्ति बतलाओ।

और इस दुर्गंध से मुझको मुक्ति दिलवाओ।।

किन्तु बताओ क्या कर सकती हो मत्स्यगंधा।

महके अंग अंग तेरा,तुम बन जाओ सुगंधा।।


क्या ? मैं भी वैसा जीवन जी सकती हूँ।

तो ऋषिवर ! मैं कुछ भी कत सकती हूँ।।

सोच लो,कुछ भी कर सकती हो।

किन्तु उपाय सुन, डर सकती हो।।


नही ऋषिवर, मैं कुछ भी कर लूँगी।

किन्तु अपना जीवन तो फिर जी लूँगी।।

तो फिर अपना कौमार्य दान करना होगा।

और मुझ पर तुम्हें अभिमान करना होगा।।


किन्तु यह तो उचित न होगा ऋषिवर।

लूँगी किसी और संग कैसे मैं भाँवर।।

हो कौमार्य भंग कौन तब मुझे अपनाएगा।

कैसे बनूँगी संगिनी, कौन घर ले जाएगा।।


दे कर बलि कौमार्य की,सुरभित जीवन ?

किन्तु जिया न जाए यह अभिशप्त जीवन।।

एक तरफ अभिशप्त जीवन,वहीं सुरभित काया।

ऋषि की बातों ने तो मेरा मन है अब भरमाया।।


क्या करूँ क्या न करूँ, समझ न आए।

ऋषि की यह बात किन्तु मन न भाए।।

देख असमंजस मे ऋषिवर यूँ बोले।

त्रिकालज्ञ होगा पुत्र, मन क्यों डोले।।


तेजस्वी होगा, करेगा अभिमान युग। 

हरेगा संतान,देगा तुझको भी सुख।।

मैं देख रहा हूँ उसका प्रारब्ध।

गुणी ज्ञानी और होगा लब्ध।।


संकोच न करो यह स्वीकार करो।

आओ लगो अंग और अंगीकार करो।।

उचाट था ऋषि मन बीच मझधार।

नाव ले रही थी हिचकोले बार बार।।


इधर नाव उधर ऋषि मन लहरों मे था।

उसका यौवन अब, कहाँ पहरों मे था।।

देख उसका मौन ऋषि ने हाथ बढाया।

नैया मे ही उसको अपने पास बिठाया।।


नहीं रहा अब मेरे भावों पर कोई जोर।

हे सुन्दरी अब लौट चलो तट की ओर।।

वो भी कहाँ अब अपने वश मे थी।

थी मंत्रमुग्ध वो ऋषि के वश थी।।


चंचल नयन विशाल चहक उठे।

साँसों के सुर भी अब बहक उठे।।

किन्तु संशय फिर भी उसके मन मे था।

भले ही ज्वालामुखी उसके तन मे था।।


देख रही ऋषि को किन्तु कुछ न बोली थी।

नैया भी मझधार अब तो यूँ ही डोली थी।।

सुनो सुन्दरी है तू असमंजस तेरा जानता हूँ।

किन्तु तेरे भीतर की अग्नि को पहचानता हूँ।।


देखो न करो संकोच,तनिक निकट आ जाओ।

और अभिशप्त इस जीवन से मुक्ति पा जाओ।।

शीतल मन्द पुल्कित बह रही है बयार।

है मादकता इस यौवन पर कितनी सवार।।


यूँ व्यर्थ न यौवन को गंवाओ अपने।

ले चलो एकान्त पूरे हों सब सपने।।

देखो तनिक न तुम यूँ संकोच करो।

झांँको मेरी आँखों मे अब न यूँ डरो।।


यह सुरभित शीतल बयार मन्द मन्द।

पुष्प,पराग,लतिका,जूही और मकरंद।।

अनजाने मे ही वो ले हाथ पतवार। 

चली तट की ओर छोड़ मझधार।।


जाने ऐसा क्या जादू किया ऋषिवर।

सम्मोहित सी मै, ना सूझे कोई डगर।।

इसी उलझन सम्मोहन मे लो आ गया तट।

बस और नही आ जाओ ऋषि तुम निकट।।


उसने भी हाथ बढा दिया कुछ न बोली।

आगे आगे चले ऋषिवर, पीछे वो हो ली।।

कोमल हरित दूर्वा और सघन छाँव।

देख ऋषि के वहीं ठिठक गए पाँव।।


बोले प्रिय, यही है उत्तम स्थान।

आओ निकट मेरे, करें संधान।।

खोल वेणी फैला दिए उसने केश।

उन्मुक्त था,मादक था वह परिवेश।।


और बँध गए वो प्रणय सूत्र।

यूँ मिलन से हुआ एक पुत्र।।

पुत्र! हाँ कृष्ण वर्ण नयन विश्वास।

जग प्रणेता कृष्ण द्वैपायन वेद्व्यास।।


देख तेजस्वी पुत्र ममत्व जाग गया।

क्षणभर जगनिंदा का डर भाग गया।।

किन्तु काल की भी है अजब माया।

तब ही ऋषि उसके सन्निकट आया।।


ले पुत्र हाथ वो दूर जाने लगा।

स्नेहिल हाथ से सहलाने लगा।।

यह क्या तुम ऋषिवर, सितम ढा रहे हो।

जी भर देखा भी नही दूर ले जा रहे हो।।


मै माता इसकी यह न हो मेरे साथ।

यह तो ममत्व पर ही होगा आघात।।

सुन्दरी ये तुम्हारे जीवन का ध्येय नहीं।

यह पुत्र तुम्हारे लिए अभी गेय नही।।


अभी करने हैं तुमको संधान कई।

रही जोह बाट तेरी, एक राह नई।।

कह ऋषिवर पुत्र संग कर गए प्रस्थान।

किन्तु बैठी रही यह,छोड़ न पाई स्थान।।


यद्यपि सुरभित हो गई थी,मत्स्यगंधा।

अंग अंग सुवासित, हो गई वो सुगंधा।।

गंधकाली, गंध कस्तूरी,मादक वो योजनगंधा।

यौवन ज्यूँ बहे कालिन्दी पार्वती वो अलकनंदा।




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