मृग मरीचिका ! (गीत)
मृग मरीचिका ! (गीत)
कुछ आये कुछ चले भी गए
मृग मरीच अशेष रह गए
अब तो कुछ दिन शेष रह गए
जोड़ घटाना रेत हो गए
चारो ऋतुएं फिर- फिर आईं
जाने कितना मन बहलाईं
बना पपीहा मन है अब भी
उसकी प्यास बुझा ना पाई
उसकी प्यास ....
आकर्षण के ढेर लग गए
फिर भी हम भदेस रह गए
अब तो कुछ दिन....
सुबह सरीखे हम आये थे
सपने संग साथ लाये थे
सदियाँ बीत गईं हैं अब तो
वहीँ पड़े हैं जहां खड़े थे
वादों के हम ढेर हो गए
कागज़ के हम शेर हो गए
अब तो कुछ दिन ....
सुख को देखा दुःख को देखा
खिंची रह गई लक्ष्मण रेखा
कुछ कितना कैसे भी कर लो
नहीं टूटती नियति की रेखा
नहीं टूटती ...
हाथों के लकीर धुल गए
बड़े बड़ों के चूल हिल गए
अब तो कुछ दिन।