मोची के सपने
मोची के सपने
जूतों-सी फटी ज़िंदगी को सिलकर,
बनाया था उसने कर्म को ताज,
पर बेटे की नन्हीं आँखों से देखे,
कल के हसीं सपने भी आज !
फुटपाथ पर उसका एक कोना था,
कुछ ब्रश, पॉलिश और एक बिछोना था,
शिकन पड़ गई माथे पर,
ध्यान मग्न चप्पल जूतों पर,
ब्रश चमकाते गैरों के जूतों पर !
जीवन था बीता निर्धनता में,
पर था यकीं उसे अपने बच्चे की कुशलता में,
बाँध रहा है जूतों में गाँठ कई,
और बुनता है बेटे के भविष्य के ख़्वाब कई !
जूते सिलते उस मोची संग बैठे,
बेटे के मस्तक पर तेज समान,
पेशे से उसके प्यार को देखा
और देखा उसके सपनों का अभिमान !
कौन कहता है सिर्फ देवालय में होता है,
ईश्वर के भिन्न रुपों का ज्ञान,
देखा है मैंने उस बीच सड़क पर,
'विश्वकर्मा' संग शारदा' विराजमान !