मंजिल या मौत के सिरहाने
मंजिल या मौत के सिरहाने
मैं देखता हूँ पानी का रंग
मैं पहचानता हूँ
हवा को चेहरे से।
मुझे याद है
रेगिस्तान का शोर
मुझे स्वाद पता है
हर किस्म के ज़हर का।
मेरी आँख चौंधिया जाती है
अंधेरों में
डर रहता है उजाले में
किसी को न देख पाने का।
मुझे मेरी धड़कन का,
मेरे वश में न होना खटकता है
और उस आखिरी
बसंत की दोपहर
जब तेज धारदार
स्याही से मेरी नस कटी
और बेरंग खून बहना
सबसे हँसी पल था मेरी ज़िन्दगी का...
