मजदूर
मजदूर
मजदूर और जानवरों में आखिरी फर्क क्या है,
दोनों के मौत से दुनिया पर असर क्या है?
कोई ना मरेंगे तो देख लेगें,
अकाऊंट में पांच लाख भी दे देंगे।
आज सौ मरेंगे कल हजार पैदा हो जायेंगे,
कुछ दिन रोयेंगे- चिल्लायेंगे फिर चुप हो जायेंगे।
कुछ दिन अनशन पर बैठेंगे ,
भुखमरी से खुद काम पर लग जायेंगे।
इनको कितना भी भगाओ,
बोरिया-बिस्तर लेकर आ जायेंगे।
महानगर के खुबसूरती पर ये काला धब्बा है,
कोई क्यों झेले इनहे ये कचरे के डब्बा है।
विद्यालय बनाये तो क्या हुआ,
बच्चों ने इनके क्यों पढ़ ना है,
पढ कर सर चढ़ जायेगे,
फिर नये श्रमिक कहा से लायेंगे।
हमारे महल बना दिये तो क्या,
पुरे पैसे किये हैं वसूल
खुद कि झोपड़ी टुटी है तो क्या,
कौन से हमारे हैं, रसूल(पैगम्बर)
कपड़े पहनकर क्या करेंगे,
जिस्म तो जला तवा है।
पैरो के छालों का क्या करना,
देश कि माटी दवा है।
खेत में अन्न उगाये तो क्या,
क्या हुआ गर खुद का चुल्हा ठंडा है!
एक-दो दिन भुखे सो भी गये तो क्या?
बाजार भी तो इस बार मंदा है।
कोई ना चुनाव में सब देख लेंगे,
कुछ पैसो में वोट खरीद लेंगे।
कोई भी सरकार आये-जाये,
इनकी हालत वही रहनी है।
किसको फर्क ये चाहे रहे या जाये,
भारत रूपी हरे पेड़ कि ये आयेगा सूखी टहनी है ।
पता ना इन श्रमजीवीयों को
कब उचित हक मिल पायेगा,
कब होगी इनको अपनी माटी नसीब,
कब इनको इंसान समझा जायेगा,
पैसों की मायावी दुनिया में,
क्या इन गरीबों का कोई मसीहा आयेगा ?
