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Dr. Swati Rani

Abstract

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Dr. Swati Rani

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परित्यक्ता

परित्यक्ता

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हाँ मैं एक परित्यक्ता(तलाकशुदा) हुं, 

और मुझे इसका शोक नहीं ! 


कान थक गये थे ,

सुन के गाली बात! 

टुट चुकी थी सह के

 जलालत दिन रात! 


मेरे शरीर पर अब भी हैं,

नीले-काले दाग! 

दिवारों ने देखा है मेरा क्रंदन,

सारी- सारी रात! 


हाँ मैं एक परित्यक्ता हुं, 

और मुझे इसका शोक नहीं! 


दिल में था अथाह दर्द, 

चेहरे पर थी झूठी मुस्कान! 

तिल-तिल कर के जल रही थी, 

खो के अपना स्वाभिमान! 


कहने को था वो अपना घर,

पर फिर भी मैं परायी थी,

बाघ रुपी दहेज लोभियों में,

मैं हिरन सी सकुचायी थी!


हाँ मैं एक परित्यक्ता हुं, 

और मुझे इसका शोक नहीं ! 


कंकरीली है जमीन, 

मंजिल ना जाये छुट! 

छाले पड़ेगे हजारों, 

कहीं जाऊ ना टुट! 


भंवरों में फंसी है कश्ती, 

बीच पडी़ मजधार को! 

बनुंगी मैं इसका खेवैया, 

जाऊंगी एक दिन पार को! 


हाँ मैं एक परित्यक्ता हुं, 

और मुझे इसका शोक नहीं!


पता है नहीं मिलेगी इज्जत, 

पुरूष प्रधान समाज से! 

पुकारी जाऊंगी मैं, 

चरित्रहीन, कुल्टा आदी नामों से ! 


  हर नजरें गन्दी होंगी, 

पति बिना बाजार में ! 

सब चील कोऔं से, 

होंगे नोच-नोच मुझे खाने में !


हां मैं एक परित्यक्ता हुं, 

और मुझे इसका शोक नहीं!


मैं ही नारी, मैं ही नायक, 

अपनी भविष्य रचयिता हुं! 

प्रकृति की मैं चहेती, 

उसका प्रिय कलाकार हुं! 


 मात-पिता ने दुत्कारा,

तो समाज क्या अपनायेगा! 

पग-पग तनहाई रूपी दंशन, 

छलनी होगा मेरा अंतर्मन ! 


हाँ मैं एक परित्यक्ता हुं, 

और मुझे इसका शोक नहीं ! 


मेरे आंसू बनेंगे हथियार, 

चट्टान सी मैं हुं तैयार ! 

ना झुकुंगी, ना टुटुंगी, 

ना रूकुंगी ना मुड़ुगी ! 


गर्दिश में सितारों ने, 

ऐसा वक्त दिखलाया है ! 

जो था सबसे अपना, 

उसी ने आंख दिखलाया है !


हाँ मैं एक परित्यक्ता हूंं,

और मुझे इसका शोक नहीं !


सीता जैसी नारी पर भी, 

तोहमत हजार लगाये है, 

मुझ तिनके कि क्या बिसात, 

आगे तूफान हजारों है! 


चुना है मैने मेहनत, ईज्जत, 

छोड़ के सोने के पिंजड़े को! 

अंखियों के पलको से चुन चुन, 

हटाऊंगी रास्ते के रोड़े को ! 


हाँ मैं एक परित्यक्ता हूंं, 

और मुझे इसका शोक नहीं ! 


क्या कभी इस समाज में, 

उचित सम्मान पाऊंगी,

असमंजस में पड़ी मैं सोचूं, 

क्या कभी ये अंतर्मन कि लडा़ई जीत पाऊंगी ?


जहाँ दुर्गा-काली पुजी जाती हैं, 

मंदिरों में, घर-घर, 

क्या यही वो समाज है, 

जहाँ औरत का अस्तित्व पुरूष से है ?



हाँ मैं एक परित्यक्ता हूंं, 

और मुझे इसका शोक नहीं ! 


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