मजबूर ये मजदूर हैं
मजबूर ये मजदूर हैं


मौत की सड़क चले हैं
मुर्ख नहीं ना दिलेर हैं
मजबूर ये मजदूर हैं।
मालिकों के ठुकराएँ हैं
बेबसी से बहार आए हैं
नमक-रोटी भी जब खत्म हो चली
अपने घर को निकल यह आए हैं।
लाठियों की मार क्या कर लेगी उसका
जो गरीबी का मारा है
महामारी या भूख ही
बचा क्या अब चारा है।
तुम्हारी आज़ादी छीन गयी है
और उनका अनाज
तुम कैद हो कुछ दिन के लिए
और वह हो गए हैं बरबाद।
सैलाब है राहों पर
बेजान आँखों में आस है
लड़खड़ाती क़दमों से
चल पड़े मापने मीलों का पहाड़ है।
हवाई जहाज के इस युग में
ठेलों -साइकिल पर सवार हैं
देख आँखें भी नहीं झुक रही
कितना बदल गया इंसान है।