।। मित्र ।।
।। मित्र ।।
बचपन से ही खिंचा हुआ था,
आंखों में वो चित्र,
कृष्ण सुदामा का पावन मिलन,
थे कितने अद्भुत वो मित्र।
थे कितने अद्भुत मित्र वो ,
ये है अब तक मन पर छाया,
बना सुदामा कब से घूमूँ,
पर मेरा कृष्ण न आया ।।
कलयुग में तो मित्र का,
चित्र हुआ विपरीत,
कोई साथ नहीं अब जीवन भर,
अब सब मतलब की प्रीत,
सब मतलब की प्रीत यहां,
तुम बस ये जान लो भाई,
अहम, स्वार्थ और लोभ से न पटती,
नित बढ़ती संबंधों की खाई ।।
मित्र वही जो बस टरा नहीं
हो टूटा सब का साथ भले,
मेरे सुख में या फिर दुख में,
हर तूफान में वो बस साथ चले,
तूफान में वो बस साथ चले,
बने इस जीवन नैया का खिवैया,
कुरुक्षेत्र में जीवन के ये अर्जुन,
ढूंढे बस अपना मित्र कन्हइया ।।