।।कुदरत का कहर।।
।।कुदरत का कहर।।
मनुष्य कुदरत से खेल रहा था।
ईश्वर सब कुछ देख रहा था।
प्रकृति को खूब उजाड़ रहा था।
जंगल को खूब काट रहा था।
कुदरत पर थोड़ी सी न दया दिखाई।
कुदरत भी थी खूब अकुलाई।
बहुत बेशरम हुआ मनुष्य था।
कुदरत के बदले का आभास था।
देखो रूठ गई है अब कुदरत प्यारे।
अब खूब रोइए मिल कर सारे।
अब तड़प रहे हो आक्सीजन को।
क्यों तड़प रहे हो पानी पीने को।
क्यों अत्याचार किया कुदरत पर।
लगाम कसो तुम अपनी आदत पर।
ईश्वर नें क्यों पर्वत पर बर्फ जमाई।
ताकि मिलता रहे पानी तुमको भाई।
