।।मृगतृष्णा।।
।।मृगतृष्णा।।
मानुष मन मृगतृष्णा में,जीवन सारा भटकता है।
कुछ पाने की खातिर, सब अपना खोता है।
जीवन के जंगल में, मत बन के मृग भटको।
बन कर तुम सूरज, आकाश में खूब चमको।
जीवन एक सागर है,सदा हलचल करता है।
मानुष मन मृगतृष्णा में,जीवन सारा भटकता है।
दौलत के रंग निराले, ये कहीं न रुकती है।
आज मेरी कल तेरी, यह चलती रहती है।
दौलत के पीछे मानुष,दिन रात खूब खटता है।
मानुष मन मृगतृष्णा में,जीवन सारा भटकता है।
दूर से सूरज किरने, लगती हैं पानी पानी।
समझ के पानी हिरना,चाहता है प्यास बुझानी।
भाग भाग के फिर वो, खुद जान गंवाता है।
मानुष मन मृगतृष्णा में,जीवन सारा भटकता है।
दुख चिंता का कारण, ये मृगतृष्णा होती है।
तृष्णा से भरा मन सबका, जिंदगानी रोती है।
पाने को दौलत सारी, जतन हजारों करता है।
मानुष मन मृगतृष्णा में,जीवन सारा भटकता है।
दूर करो मृगतृष्णा , यह कभी न मिलती है।
मृग के पीछे गए राम जी,हरी तब सीता जाती है।
मानव मन का लालच, कैसा दुख ले आता है।
मानुष मन मृगतृष्णा में,जीवन सारा भटकता है।