मिलूँगी मैं तुझे
मिलूँगी मैं तुझे
मिलूँगी मैं तुझे फिर कभी
कहां, किस तरह, किस वक्त,
पता नहीं,
शायद तेरे उस शहर के
पास में किसी गांव मे
लहराते हुए खेतों में
खिलते फूलों के साथ,
शायद तेरे घर की उस
छोटी सी छत पे
मंडराते काले बादलों में
टिमटिमाते तारो के साथ,
शायद तेरे आंखों के उस
सफेद से चट्टान में
बनते लाल नदी में
बहते पानी के साथ,
शायद तेरे उस हाथो में
बनती उल्टी सुल्टी लकीरों में
कभी ना मिलने या ना
मिलानेवली लकीरों के साथ,
शायद तेरी किताबों के उस
जएफ से बनते पन्नों में
धुंधले से
लगते वो सारे
हर्फो के ही बीच,
शायद तेरी ग़ज़लों की उस
गहेरी सी गलियों में
बिखरते सवालों जवाबों में
झलकते ज़्ज़बातों के बीच,
नहीं जानती कुछ भी की
कहाँ मिलूँगी,
मगर इतना जानती हूं कि
मिलूंगी तुम्हे मे कभी
शायद उन बातों - मुलाकातों
से ही बनती वो यादों में
या फिर उस यादों के शहर में
यादों के धागों के बीच में
रह जाती जगह मे,
या उस अधूरी मोहब्बत मे
होती अधूरी सी मुलाक़ात मे,
मे शायद मिलुगी तुझे
उस अनजान राह में
एक अजनबी से
मुसाफिर की तरह।