तखलुस हमारा था कैफ़ी की वो तो हमे साहिर समझने लगे,
तखलुस हमारा था कैफ़ी की वो तो हमे साहिर समझने लगे,
अंदाजे बयां अलामत हैं
इश्क की इस्तिलाह का
बाद ए हिज़्र लिखूं जो भेद
तस्ववूर से भी गरचे गज़ल
हमारी गज़ल का तो,
ना कोई मतला मिलता हैं
ना कोई मकता मिलता हैं।
वो नज़्म भी अधूरी रहती हैं
वो कहानी भी पूरी नहीं होती हैं।
फिज़ा में जैसे फिराक लगे,
कभी लगे शोबदा तो
कभी हब्स लगने लगे ।
ए असीर ए इश्क,
तुम्हारे अजीज है बड़े गाफिल
अभी तो आगाज़ ए गज़ल किया
की वो इर्शाद पे ही अश्क बहाने लगे।
वो बिना अदा ओ आरज़ू के
हमारी गज़ल में क़ाफिया ओ रदीफ
ढूंढने लगे,
क्या कहे जमाने को अब तो हम
उन्हें फिर से चाहने लगे।
ए शयदा ए इश्क ,
तखलुस हमारा था कैफ़ी
की वो तो हमे साहिर समझने लगे,
क्या कहे जमाने को अब तो हम
वो हमे भी अब तो फिर से चाहने लगे।