दिल फिर भी उनके लिए दरवेश था
दिल फिर भी उनके लिए दरवेश था
ना दिन हुआ ना शाम ढली मसलसल एक सहमी सी रात थी।
ना स्याही निकली ना कागज़ मिले अल्फ़ाज़ फिर भी एक किताब मे छुपे थे।
ना सर्द हुई ना गर्म हुए जज्बातों का ही तो एक मौसम था ।
ना देखा कभी ना बात हुई आरज़ू तो थी एक मुलाक़ात की।
ना यादे कोई ना ख़वाब बुने जेहन तो फिर बेख़्वाब ही था ।
ना चिट्ठी ना कोई ख़त लिखे अर्ज़ तो थी एक अवराक ( पन्ने) की।
ना खबर कोई ना दस्तक दिए मर्ज तो थी उनके दीदार की ।
ना हर्फ मिले ना सफ़ (पंक्ति)बनी कलम तो फिर भी मसरूफ थी।
ना राह कोई ना सफर किया सर्दियों से फिर भी मुसाफ़िर थे।
ना साथ ना कोई हाथ मोहबब्त फिर भी जाविंदा थी।
ना जनता ना कोई जांच सियासत तो फिर भी उनके नाम की थी।
ना प्यार हुआ ना इजहार किया दिल फिर भी उनके लिए दरवेश (फ़कीर) था।