जिन्दगी
जिन्दगी
ज़हर रख कर कहां जाओगे
आखिर तो ख़ाक बनकर मिटी मे मिल जाओगे
चार दिन की होगी चमक
फिर तो बस अंधेर सी एक कोठरी ही ठिकाना है।
सफर होगा कठिन बहुत
अपना न कोई , ना कोई पराया है,
फिर तो ग़म को दबोचते ही रहना है
आंखों में अश्क़ को छुपाना और
चहेरे पर मुस्कराहट सा मुखौटा पहनकर
दुनिया से रुखसत होना है।
ना कोई अहंकार , ना कोई घमंड ,
बस सब को खुशियां देते रहना है।
खाली हाथो से खुद रोते आए हो तुम
और खाली हाथो से सबको रुलाते जाना है
दुनिया का तो बस एक यही ड्रामा है
जहां तुम्हे विवध रोल निभाना है
पैसे देकर इंसान तुम खरीदने लग जाओ
मगर उसके अच्छे कर्म कहां से लाओगे
बस उसके अच्छे कर्म ही तो
एक उसका अपना खजाना है
जो बस दुनिया के लोगो को दे जाना है
क्या आज है , क्या कल होगा,
क्या अब, क्या यहां, क्या वहा,
किस किस ने ये राज़ आज तक जाना है,
क्योंकि तेरे कर्म ही अब तो यादों का एक मेला है ।