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Himanshu Sharma

Comedy

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Himanshu Sharma

Comedy

महँगा श्रृंगार

महँगा श्रृंगार

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एक दिन मेरी श्रीमती, 

ले गयीं मुझे बाज़ार में!

जेब होने वाली है हल्की,

घूमने लगा, इंतज़ार में!


एक दुकान पर उनका,

ध्यान जाकर के अटका!

"सुनते हो" इस पुकार पे,

कान जाकर के अटका!


उनका ध्यान था अटका,

एक चाँदी की पाजेब पर!

मेरा हाथ जा के अटका,

यूँ ही हल्की होती जेब पर!


अंदर घुस गयीं दुकान के,

पाजेब को अपने पग धरा!

जब क़ीमत पूछी उसकी,

गिर पड़ा हो कर अधमरा!


मरता क्या न करता, मैंने,

बटुआ निकाल के दे दिया!

मेहनत की कमाई को, हो,

बेफिक्र, उछाल के दे दिया!


वही पाजेब लॉकर में बंद है,

सिर्फ मौक़ों पर निकलती है!

सिक्कों की खनक सुनता हूँ,

जब पहन, श्रीमती चलती है!


रूप-सज्जा की फेहरिस्त से,

मेरा जीना दुश्वार हो गया है!

कवियों न ही लिखो श्रृंगार पे,

कि महँगा, श्रृंगार हो गया है!


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