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Karishma Warsi

Abstract

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Karishma Warsi

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मेरी वफ़ा

मेरी वफ़ा

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काश मेरी वफ़ा भी किसी को रास आती,

जो मुझे रिझाने की अदा कोई ख़ास आती।

हमभी करने लगते जो मोहब्बत की नुमाइश,

तो कम्बख्त हमारी सादगी कहाँ जाती।


बेरुखी थोड़ी हम न दिखाते जो,

 ना झूठी हक़ीक़त सामने आती।

आता जो सलीका हमें भी तार्रुफ़ का,

तो बिना नक़ाब मैं लिबास कहाँ पाती।


लोग जो ख़ुद ही ख़ुदा बन जाते,

तो हमें बन्दगी भी ना भाती।

लफ़्ज़ कर देते बयाँ हाल-ए-दिल

तो लबों की ये ख़ामोशी कहाँ जाती।


हर-सू जब फ़िज़ा में बहार ही बहार छाती,

तो बिन मौसम ये बरसात किसे भिगाती।

हिज़्र में निगाहे यार जो दो-चार हो जाती,

तो गुमान-ए-वस्ल की फ़िर रात कहाँ आती।।


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