हिज़्र में निगाहे यार जो दो-चार हो जाती, तो गुमान-ए-वस्ल की फ़िर रात कहाँ आती।। हिज़्र में निगाहे यार जो दो-चार हो जाती, तो गुमान-ए-वस्ल की फ़िर रात कहाँ आती।।