सियासत
सियासत
सियासत के गलियारों में यूँ मिलता तुम्हें ये अंदाज़ क्या?
सच के शहर में झूठ ना होता तो पहनते लिबास क्या?
आस्तीन ना होती तो साँपों को भी मिलता कभी आराम क्या?
कहां छिपे मिलते वो दोस्त, और मिलता ज़हर भी ख़ास क्या?
बिन दुनिया पाते, जरूरतों के जुलूस और मतलबों के सलाम क्या?
गर ना होते गिरगिट तो रिश्ते भी बदल पाते यूँ रंग-ओ-लिबास क्या?
फरेबे मोहब्बत ही सही वरना होते सियासत दाँ के रंग हजार क्या?
हर वादे पर नया, हर जुमले पर मिल भी पाते अंदाज़-ए-ख़ास क्या?
"करिश्मा" तख़्त का देखो, जो मिट जाए फिर वो आबाद क्या?
जो बिक जाए हर मोल पर, कहिये फिर वो अनमोल किरदार क्या?
