मेरी प्यारी
मेरी प्यारी
पत्नी जी के घर से जाते ही
वह आ धमकती...इठलाती-सी।
सहज पहचान लेती मेरी उपस्थिति वह
और फिर
रसोईघर की खिड़की से
अथवा
पड़ोसी की बालकनी का सहारा लेकर
पहुँच जाती मुझ तक
अपना प्यार जताने।
घंटों बैठे रहती...बतियाती।
अपने हाथों से भोजन खिलाने की जिद करती।
ना कहूँ कभी तो...
शिकायत भरे स्वर में चिल्लाती।
हालचाल पूछने पर सदैव
मेरे पास आने की
रट 'मैं आऊँ...मैं आऊँ!!"
के रूप में लगाती ।
निहारती ऐसे मानो सदियों का साथ हो,
कजरारे नैनों में मानो रात्रि का निवास हो।
सहसा...
घबरा जाती वह
जब पत्नी जी के आगमन का
होता एहसास उसे।
अंतिम बार देखने की लालसा लिए वह
मुझे देखती-छुपती-फिरती आसपास ही कहीं।
अंत में जब पकड़ी जाती वह तो
सिर झुकाकर अपराध स्वीकार कर,
निकल पड़ती वहाँ से
कभी न लौटने के लिए।
पर प्यार जो कराए
वह थोड़ा कहलाता है।
बिना देखे मुझे
दिल उसका भी क़रार नहीं पाता है।
लौट आती है फिर वह अगली सुबह
प्रेम जहाँ आश्रय पाता है।