मेरी माँ
मेरी माँ
ज़मीन की छाती में एक
कुदाली घोंपकर झरना बहा था
झरने बहकर एक मोड़ से मुड़कर
नदी बना।
हरी आंखो वाली मछली ने
उसकी गोद
में उछाले भरी और उसे माॅं कहा-
नदी ने जिस्म को पत्थरों
पर रगड़ा ,और कई कंकड़
कूदकर उसमें
डूब गए।
हर्षित हुई ,उसके
गर्भ से जब कई
अंशों ने जन्म लिया।
अंश बिखर गए उन ज़मीनों
में जहां हरा जीवन बिछा था।
फिर गांव के खाट खाट पर
लस्सी बन और शर्बत बन जा बैठे।
छाती में अपनी हर
किस्से को दफन किया
पानी की सड़कों
से कई पथिक ने
आसरा लिया।
मेरी मां नदी सी है
किसी भी मोड़ से मुड़कर
सबकी प्यास बुझाने
के लिए मीठी नदी
नदी मेरी मां सी।