मेरी कल्पना
मेरी कल्पना
मेरी कल्पना क्या है रूप तुम्हारा ? मुझको भी बताओ,
कहाँ ठौर ठिकाना तुम्हारा कभी मेरी गलियों में आओ,
जीवन में फैला है पतझड़, कब सावन बनकर आओगे,
कल्पना को हकीकत में बदल मुझको यहाँ से ले जाओ,
मेरी कल्पना क्या है रूप तुम्हारा ? मुझको भी बताओ I
जीवन की उन मस्त बहारों में और विरले मन उपवन में,
छिपी हुई उन कलियों से सुंदर फूल बन कर तुम आओ,
मेरी कल्पनाओं में हर-पल भंवरों के गुंजन सुनाई देते हैं,
इन कल्पनाओं से बाहर निकलकर पंख लगा कर आओ,
मेरी कल्पना क्या है रूप तुम्हारा ? मुझको भी बताओ I
कभी पुलकित होकर रम जाता चमकते हुए सितारों में,
दूर क्यों हो अब तो आलिंगन अपनी बाहों का करवाओ,
कभी कोरे कागज में मेरी कल्पना रूप तु
म्हारा उकेरती ,
उस कोरे कागज से मेरे नयनों में आकर तुम बस जाओ,
मेरी कल्पना क्या है रूप तुम्हारा ? मुझको भी बताओ I
सोचता श्रद्धा सुमन बनकर तेरे गले का हार बन जाऊँ,
दिल चाहता है ,सावन के झूलों में तुम मेरे पास आओ,
मेरी कल्पना के कण-कण में तुम्हारा स्वर सुनाई देता ,
उषाकाल में उषा के रंगों में रंगकर ,तुम मेरे घर आओ,
मेरी कल्पना क्या है रूप तुम्हारा ? मुझको भी बताओ I
कभी- कभी लगती तुम नव मोर पंख की झालर जैसी,
बादल की तरह बरसकर सुंदर से पंख अपने फैलाओ,
कभी लगता तारों की झिलमिल सीढ़ी से उतर रही हो,
कल्पना मेरी सच कर रुन -झुन पायल अपनी बजाओ,
मेरी कल्पना क्या है रूप तुम्हारा ? मुझको भी बताओ I