मेरी आवाज़ के आदि हो तुम
मेरी आवाज़ के आदि हो तुम
हिमकंदराओं की घाटियों में
मौन निर्जन सी कोई जगह पर
आँखें मूँदे मैं आवाज़ दूँगी
तुम्हारे मिश्री से मीठे नाम की
पर्वत के वक्ष को चूमकर
हवाओं में बहाऊँगी
तुम समेट लेना अपनी
हथेलियों में उस कंदरा की
शीतलता ओर साँसों में
भरकर हर एक कण को
रोम रोम में छुपा लेना
मुझे ढूँढने आओगे ना
मिलकर तुमसे महसूस होगा
मानों खुद से मुलाकात हुई
मेरे देह की परछाई से
बहती हवाओं की दिशा में
तुम चले आना
चाहत की धूनी से उठता धुआँ
जहाँ दिखाई दे वहाँ मुकाम
समझना मेरा
तुम्हारे जिस्म की महक से
पहचान लूँगी स्पर्श से परे
हंमेशा तुम्हारी झील सी आँखों की
जादुई रोशनी ने संमोहन रचा है
तुम आदि हो मेरी आवाज़ के
मेरी गुनगुनाहट के पीछे चले आना
सप्तर्षि की चाल बदलती है
उनके इशारे पर मत जाना
गंध मेरे तन की चंदन के वर्ख सी
कंदराओं में बहती है
नागफनी के फूल में भरती
उन महकती फ़िज़ाओं में चले आना।