प्रेम में ही है!!
प्रेम में ही है!!
प्रेम में ही है
तन ये समर्पित
शांत मन से..!!
प्रेम में ही है
मन ये समर्पित
अंतर्मन से..!!
और करूँ मैं
क्या तुम बताओ
तुम सुनावो..!!
प्रेम में ही हैं
हम तो समर्पित
तन मन से..!!
रूष्ट से कहीं
तुम हो नहीं जाओ
ख्याल ऱखना..!!
दूर मुझसे
बहोत कहीं तुम
हो नहीं जाओ..!!
मौन को अब
मस्तिष्क में पूर्णता
साधे हुए हूँ..!!
खुद को अब
नश्वर दुनिया से
बांधे हुए हूँ..!!
भाव है मेरे
गंगा जल के जैसे
बड़े पवित्र..!!
हों कदम्ब की
छायादार शीतल
सी छांव ऐसे..!!
चीर सकती
ख़ुद को ग़र मैं जो
नज़र आता..!!
खोल सकती
मूक बने संस्कार
जो अधर मैं..!!
चीर कर के
तुमको में दिखाती
हकीकत को..!!
और अधरों
से उन्मुष्ट बताती
सत्यता पूर्ण..!!
इक है यह
समन्दर जिसके
पूरे अंदर..!!
पनपे मोती
केवल तेरे प्रेम
के लिये ही हैं..!!
बंद सीप से
सारे एकसाथ से
निकलकर..!!
लिपटे जैसे
सेकड़ो सालों के
नेह से ही हैं..!!
केवल नैन
नहीं ये उफ़लता
है समन्दर..!!
खारा पानी है
भरा जिसके पूरे
अब अंदर..!!
मुख से पान
इन पानी का कर
न सकती हु..!!
खारा इतना
है कि कंठ में भर
नहीं सकती..!!
चूम लो अब
इन मृग नयन
से तुम मेरे..!!
ये ललाट को
प्यार से अभिभूत से
मेरे मन को..!!
तुम तो अब
मेरे पूर्णता से हो
हो ही चुके हो..!!
अब मुझको
भी अपना बना लो
अपना ही लो..!!
मेरे हाथों को
अपने हाथों में ले
अब लेकर..!!
उर से अब
अपने तुम मुझे
तो लगा ही लो..!!
मन से तेरी
बन जाऊँगी राधा
मन से मीरा..!!
मन से तेरी
अब में रुक्मणि
बनूगी दासा..!!
भोले भाले तो
शिव हो मेरे तुम
गोरा तेरी हूं..!!