मैं नारद की वीणा का स्वर
मैं नारद की वीणा का स्वर
‡
मैं नारद की वीणा का स्वर
मेरा कोई नाम न क़भी पूछो
काल चक्र का मैं हूँ सदा साक्षी
मेरा कोई स्थिर धाम न पूछो ।
नियति नृत्य के दृश्य बहुत हैं
हर थिरकन के नए धरातल
हर्ष, विषाद, शांति, कोलाहल
कहीं अमिय है, कहीं हलाहल।
विस्मय, कौतूहल, आकुलता
हिंसा, पाप, पुण्य की सरिता
सुख, संपत्ति, भूख, निर्धनता
ममता कहीं, कहीं निर्ममता ।
मैंने राही बनकर सदा देखा
किसकी कहाँ ठाँव न पूछो ।
क्रन्दन की गलियों में घूमा
गया कराहों की वस्ती में
थोक भाव में जानें बिकतीं
इस धरती पर सब सस्ती में ।
सूखा तन ले खड़ी यौवना
ठठरी छाती से चिपकाए
कहीं माँग की सिंदूर पोंछती
चूड़ी, केश कही बिखाराए ।
मैं रोया सागर भर आँसू
उसकी कोई थाह न पूछो ।
ताण्डव मृत्यु स्वयं है मदिरा
पीता डगर, नगर, हर सूबा
उन्मादों का रंग चढ़ गया
छोटा, बड़ा सभी है डूबा ।
भौतिकता के उर्वरकों से
तृष्णा की भी पौध पल गई
घृणा, द्वेष के दावानल में
कोमलता की दूब जल गई ।
लपटें उच्च शिखर तक पहुँची
बरगद की अब छाँव न पूछो ।
समृद्धियों के महानगर में
पापों के भी अंकुर उगते
पुण्य विसर्जित भी हो जाता
करुणा के भी नूपुर बजते ।
कर्म योग के पाठ हैं जो विस्मृत
पर - हित के हैं कार्य निलम्बित
स्वार्थ प्रेरणा बनकर पूजित
शाश्वत गुण हों कैसे बिंवित।
संवेदन जब शून्य हो गया
मानवता का गाँव न पूछो ।