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Govind Narayan Sharma

Romance

4  

Govind Narayan Sharma

Romance

मन की अभिलाषा

मन की अभिलाषा

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चाह नहीं तेरे गोरे रुखसार पर चुम्बन करूँ,

चाह नहीं मैं बन बिन्दिया माथे पर इठलाऊँ!


चाह नहीं कोमल बांहों झूले में झुलाया जाऊँ,

चाह नहीं रेशमी जुल्फ साये में तपन बुझाऊँ! 


चाह नहीं गहरी झील सी आंखों में डूब जाऊँ, 

चाह नहीं कान का बन लटकनि लटकता रहूँ!


चाह नहीं मैं गले का नौलखा हार बन जाऊं ,

नव उरोज पर चुभ अँखियन किरकरी होऊँ! 


चाह नहीं तेरी कोमल कलाई का कंगन बनूँ,

तेरे हर इशारे पर खनकता सरगम नाद बनूँ !


चाह नहीं मैं तिरछी चितवन से बिंध जाऊँ,

चाह नहीं तेरे रसीले लब चूम प्यास बुझाऊँ!


चाहत नहीं मैं तेरे हाथों की हिना बन जाऊँ,

तेरे करतल पर सुरभि सा महकाया जाऊँ !


चाह नहीं तेरे पायल की छुद्र घण्टिका बनूँ , 

तेरे हर कदम पर बिन सुर ताल बजता रहूँ!


चाहत इतनी मोरी सजनी हर ख़्वाब में पाऊँ,

तेरी आलिंगन अगन से हिम सा पिघल जाऊँ!



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